मूर्तिपूजा का स्वरूप
1 शमूएल 12:20-21 "डरो मत; तुम ते यह सब बुराई तो की है, परन्तु अब यहोवा के पीछे चलने से फिर मत मुड़ना; परन्तु अपने सम्पूर्ण मन से उस की उपासना करना; और मत मुड़ना; नहीं तो ऐसी व्यर्थ वस्तुओं के पीछे चलने लगोगे जिनसे न कुछ लाभ पहुँचेगा, और न कुछ छुटकारा हो सकता है, क्योंकि वे सब व्यर्थ ही हैं।
मूर्तिपूजा ऐसा पाप है जो इस्स्राएल के इतिहास में बार बार हुआ। पहला लिखित वर्णन याकूब (इस्राएल) के परिवार का है; ध्यान दें इससे पहले कि वह बेतेल आया, याकूब ने आज्ञा दी कि अन्य जाति देवताओं को दूर किया जाए (उत्पत्ति 35:1-4)। पहली घटना जिसमें सम्पूर्ण इस्स्राएल जाति मूर्तिपूजा में लगी वह सोने के बछड़े की उपासना थी जब कि मूसा सीनै पर्वत पर था (निर्गमन 32:1-6)। न्यायियों के समय लोग बार बार मूर्तिपूजा में पड़ते थे। यद्यपि शाऊल व दाऊद के समय में मूर्तिपूजा का कोई विवरण नहीं; सुलैमान राजा के अन्तिम दिनों में इस्स्राएल में मूर्तिपूजा का एक निर्धारित नमूना गति में आया (1राजाओं. 11:1-8)। विभाजित राज्य के इतिहास में उत्तरी राज्य के सारे राजा मूर्तिपूजक थे जैसे कि दक्षिणी यहूदा के कुछ राजा हुए। यहूदियों में से अन्य देवताओं की मूर्ति पूजा केवल निष्कासन के बाद समाप्त हुई।
मूर्तिपूजा का आकर्षण - इस्त्राएलियों के लिये मूर्तिपूजा आकर्षक क्यों थी? कई बातें थी।
(1) इस्स्राएली अन्य जातियों से घिरे थे जो समझते थे कि बहुत देवताओं की उपासना एक परमेश्वर से बेहतर है। दूसरे शब्दों में, अधिक बेहत्तर होता है। परमेश्वर की प्रजा पर इन लोगों का प्रभाव हुआ, और वे लगातार उनकी नकल करते थे बजाय इसके कि परमेश्वर की आज्ञाकारिता द्वारा स्वयं को पवित्र रखें और उनसे अलग रहे।
(2) दूसरी जातियों के देवता इस्राएल के परमेश्वर के समान आज्ञाकारिता नहीं चाहते थे। जैसे बहुत सी अन्यजाति धार्मिक परम्पराओं में मन्दिर की वेश्याओं के साथ अनैतिक यौन सम्बंध उनके धर्म का भाग था। इस्स्राएल में बहुतों को ये तरीके आकर्षक लगते थे। दूसरी ओर परमेश्वर चाहता था कि लोग व्यवहार के उस उच्च नैतिक स्तर का पालन करें जो कि उसकी व्यवस्था में लिखे थे उसके उनके साथ छुटकारे के सम्बंध बने रहें। उन्हें लगातार अनैतिकता व दूसरे पापमय कार्यों की ओर झुकने से मुकाबला करना था जो अन्यजाति धर्मी द्वारा सही माने व व्यवहार में लाए जाते थे।
(3) मूर्तियों के शैतानी चरित्र के कारण, (अगला भाग देखें) मूर्तिपूजा समय समय पर उचित व दर्शनीय परिणाम उनके लिये छोड़ती थी जो मूर्तियों की उपसाना करते थे। मूर्तियों के पीछे शैतानी शक्तियाँ सक्षम थी कि अपने सीमित शक्ति से अस्थिर भौतिक व शारीरिक लाभ पहुँचा दे। उर्वरता के देवता संतानोत्पत्ति की प्रतिज्ञा करते थे; ऋतु देवता (सूर्य, चाँद, वर्षा आदि) अधिक व उचित फसल की प्रतिज्ञा करते थे; और योद्धा देवता शत्रुओं से सुरक्षा व युद्ध में विजय की प्रतिज्ञा करते थे। ऐसी प्रतिज्ञाएँ लाभदायक प्रतीत होती थी और इस्स्राएली इस कारण इन मूर्तियों की सेवा करने को तैयार हो जाते थे।
मूर्तिपूजा का आवश्यक चिन्ह - इस मूर्ति पूजा के आकर्षण को नहीं समझ सकते जब तक हम उसके सही स्वभाव को न समझें।
(1) पवित्रशास्त्र स्पष्ट करता है कि मूर्ति स्वयं में कुछ नहीं (यिर्म 2:11; 16:20)। मूर्ति तो केवल लकड़ी या पत्थर का टुकड़ा होता है, जो मनुष्य के हाथ से गढ़ा जाता है, जिसमें अपनी कोई शक्ति नहीं। शमूएल मूर्तियों को व्यर्थ बताता है (1शम 12:21), और पौलुस साफ़ कहता है: "हम जानते हैं कि जगत में मूर्ति कुछ नहीं"। (1कुर 8:4; तुलना करें 10:19-20)। इस कारण भजनकार (जैसे भज 115:4-8; 135:15-18) और भविष्यद्वक्ता (जैसे, भज.10 18:27; यश 44:9-20; 46:1-7; यिर्म 10:3-5) आमतौर से उनका ठट्ठा करते थे।
(2) तौभी, सभी मूर्तियों के पीछे दुष्टात्माएँ, आत्मिक शक्तियाँ होती है जिन पर शैतान का नियंत्रण है। मूसा (देखें व्य 32:17. टिप्पणी) और भजनकार (भज 106:36-37) दोनों झूठे देवताओं को दुष्टात्मा बताते हैं। यह भी ध्यान दें कि पौलुस मूर्तियों के सामने चढ़ाए गए माँस के लिये कुरिन्थियों की पत्री में क्या कहता है "गैर यहूदी जिन वस्तुओं की बलि चढ़ाते हैं, उन्हें परमेश्वर के लिये नहीं वरन् दुष्टात्माओं के लिये चढ़ाते हैं।" (1कुर 10:20)। दूसरे शब्दों में, मूर्तिपूजा के पीछे जो शक्ति है वह शैतानी शक्ति है, और दुष्टात्माओं को जगत में काफ़ी शक्ति है। परन्तु मसीही जानते हैं कि यीशु मसीह की सामर्थ्य दुष्टात्माओं की शक्ति से कहीं अधिक है, तौभी "शैतान इस युग का ईश्वर" होने के नाते (2कुर 4:4) इस वर्तमान दुष्ट युग में अपनी शक्ति का बहुत प्रयोग कर रहा है। (देखें 1 यूह 5:19, टिप्पणी; तुलना करें लूक 13:16; गल 1:4; इफ 6:12; इब 2:14)। वह झूठे आश्चर्यकर्म, चिन्ह व अद्भूत कार्य करने की शक्ति रखता है (2तीम 2:9; प्रक 13:2-8,13; 16:13-14; 19:20) और लोगों को शारीरिक व भौतिक लाभ पहुँचाता है। बेशक, कई बार इस शक्ति से दुष्टों की खुशहाली होती है (भज 10:2-6; 37:16,35; 49:6; 73:3-12)।
(3) मूर्तिपूजा व दुष्टात्माओं में सम्बंध को और साफ़ रूप से देख सकते है जब हम देखते हैं कि अन्यजाति धार्मिक परम्पराएं सिद्धि, जादूगरी, भूतसाधना, शुभ अशुभ मानने से सम्बंधित है (तुलना करें 2राजा 21:3-6; यश 8:19; देखें 18:19-11, टिप्पणी, प्रक 9:21, टिप्पणी)। पवित्रशास्त्र के अनुसार, ये सारे शैतानी कार्य दुष्टात्माओं को सम्मान देने के लिये हैं जैसे जब शाऊल राजा एन्दौर की भूत साधने वाली स्त्री के पास गया कि मृत शमूएल को बुलाए, तो उसने एक आत्मा को भूमि में से निकलते देखा, जो शमूएल के प्रतिनिधि के रूप में लगा (1शम 28:8-14), उसे आशा थी कि नरक में से कोई दुष्टात्मा आ जाएगी (देखें 1 शम 28:12, टिप्पणी)।
(4) नया नियम लालच को मूर्तिपूजा के समान बताता है (कुल 3:5)। सम्बंध स्वाभाविक है, क्योंकि दुष्टात्माएँ भौतिक लाभपहुँचा सकती है; वे लोग जो उनके पास है उससे संतुष्ट नहीं होते और अधिक पाने के लालची होते हैं वे इन दुष्टात्माओं के सिद्धान्त व इच्छाओं से सम्बंध रखते हैं ताकि वे उन्हें वह सब दे सकें जो वे चाहते हैं। यद्यपि ऐसे लोग लकड़ी या पत्थर के बने देवताओं की आराधना न भी करते हों परन्तु अपने लालच व दुष्ट इच्छाओं के कारण उनकी उपासना करते हैं; इसलिये वे मूर्तिपूजक है। इसलिये यीशु का यह कथन कि हम "परमेश्वर व धन दोनों की सेवा नहीं कर सकते" (मत 6:24) पूरे तौर पर पौलुस की शिक्षा के समान है कि विश्वासी "प्रभु के कटोरे और दुष्टात्माओं के कटोरे दोनों में से नहीं पी सकते" (1कुर 10:21)। रिडी विज्ञपि
मूर्तिपूजा के लिये परमेश्वर की प्रतिक्रिया - परमेश्वर किसी भी प्रकार की मूर्तिपूजा को बर्दाश नहीं करता।
(1) पुराने नियम में कई बार इसके लिये उसने चेतावनी दी
(A) दस आज्ञाओं में, पहली दो प्रत्यक्ष रूप से इस्स्राएल के प्रभु परमेश्वर के अतिरिक्त किसी भी दूसरे देवता की उपासना वर्जित है (देखें निर्ग 20:3-4, टिप्पणी)।
(B) दूसरे स्थानों पर भी इस प्रकार के निर्देश दिए गए (जैसे निर्ग 23:13,24; 34:14-17; व्य 4:23-24; 6:14; यहो. 23:7; न्या. 6:10; 20 17:35, 37-38)।
(C) दूसरे देवताओं की उपासना न करने से सम्बंधित एक आज्ञा यह थी कि कनान देश की अन्यजातियों की सारी मूर्तियों को तोड़ दिया जाए, नाश कर दिया जाए (निर्ग 23:24; 34:13; व्य 7:4-5; 12:2-3)।
(2) इस्स्राएल का इतिहास कई बार मूर्तिपूजा का इतिहास था। वायदे के देश में से मूर्तियों को नाश न करने से परमेश्वर अपने लोगों से बड़ा क्रोधित हुआ तथा उनके दूसरे देवताओं के पीछे जाने के कारण परमेश्वर ने उन्हें दण्ड दिया कि उनके शत्रु उन पर अधिकारी हुए।
(A) न्यायियों की पुस्तक बार बार दोहराए जाने वाले चक्र को बताती है इस्त्राएलियों ने उन अन्य जातियों को देश से नहीं निकाला, बल्कि उनके देवताओं की मूर्तियों की आराधना करने लगे; परमेश्वर ने उनके शत्रुओं को उन पर अधिकारी होने दियाः परमेश्वर की प्रजा ने परमेश्वर की दोहाई दी, प्रभु एक न्यायी को नियुक्त करके भेजता था कि उन्हें छुड़ाए।
(B) उत्तरी राज्य की मूर्तिपूजा बगैर रुकावट दो शताब्दियों तक चलती रही। अन्ततः परमेश्वर का संयम समाप्त हुआ और उसने अश्शूर को अनुमति दी कि इस्स्राएल की राजधानी को बर्बाद करे और दस गोत्र बिखर जाए (2रा 17:6-18)।
(C) दक्षिणी राज्य यहूदा में कई परमेश्वर का भय मानने वाले राजा हुए जैसे हिजक्कियाह, योशिय्याह, परन्तु मनश्शे जैसे दुष्ट राजाओं के कारण यहूदा में भी मूर्ति पूजा स्थापित हुई (2रा 21:1-9)। परिणामस्वरूप, परमेश्वर ने भविष्यद्वक्ताओं द्वारा बताया कि वह यरूशलेम को नाश होने देगा (2रा 21:10-16)। इन चेतावनियों के बावजूद, मूर्तिपूजा चलती रही (देखें जैसे, यश 48:4-5; यिर्म 2:4-30; 16:18-21; यहेज 8), जब तक कि भविष्यद्वाणी को पूरा बाबुल के राजा नबूकदनेस्सर द्वारा यरूशलेम पर अधिकार कर मन्दिर को जला दिया तथा नगर को बर्बाद किया (2रा 25)।
(3) नया नियम विश्वासियों को भी मूर्तिपूजा के विरुद्ध चेतावनी देता है।
(A) मूर्तिपूजा आज कई रुप में स्वयं प्रकट करती है। यह संसार के झूठे धर्मों में है, साथ ही जादूगरी, शैतानवाद तथा दूसरे ऐसे कार्यों में। यह वहाँ मिलती है, जहाँ कहीं स्त्री पुरुष लालच व भौतिकवाद में फँस जाते हैं और केवल परमेश्वर पर विश्वास नहीं करते। अन्तत मण्डली में होती हैं जब लोग विश्वास करते है वे एक ही समय में परमेश्वर पर भी विश्वास करते है उसकी आशिषों व उद्धार के अनुभव के लिये और साथ ही संसार की दुष्ट व अनैतिक में भी बसे रह सकते है।
(B) परिणामस्वरूप, नया नियम बताता है कि हम लालची या अनैतिक न हो (कुल 3:5; तुलना करें मत 6:19-24; रो 7:7; इब्र 13:5-6, देखें लेख धन सम्पति व दरिद्रता)। परमेश्वर अपनी चेतावनियों को इस कथन से सहारा देता है कि वे सब जो मूर्तिपूजा में किसी भी रूप से फँसे हैं परमेश्वर के राज्य के अधिकारी न हों (1कुर 6:9-10; गल 5:20-21; प्रक 22:15)। More Read

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