Fruits and Gifts of the Holy Spirit


पवित्र आत्मा का फल और वरदान - Fruits and Gifts of the Holy Spirit


प्रस्तावना


   पवित्र आत्मा के कार्य और उसके फल में स्पष्ट अन्तर है।

    आत्मा का कार्य उसकी क्रियाशील सेवकाई का सीधा परिणाम है।

   आत्मा का फल, हमारा उसके प्रति समर्पण और उसका हममें वास करने का परिणाम है।

   शरीर के कार्यों और आत्मा का फल के बीच; गलातियों 5:17-23 में एक सुनिश्चित विषमता की तुलना है।

    शरीर के कार्य (उनमें से 17) आदम के स्वभाव के स्वाभाविक परिणाम हैं।

   आत्मा का फल (उनमें से नौ) एक वचन में कहा गया है जो फल के एकत्व का सूचक है। यह तब तक पूर्ण नहीं है जब तक कि सभी नौ उपस्थित नहीं है।

    मसीही तब तक पूर्ण नहीं है जब तक वह सभी नौ अनुग्रहों को सुस्पष्ट रूप से प्रकट नहीं करता।


1. आत्मा का फल

1) फल की किस्में: गलातियों 5:22, 23 में नौ अनुग्रहों की सूची एक इकाई, एक फल, के रूप में दी गई है।


क) प्रेमः यह ईश्वरीय प्रेम है, अन्तर में वास करने वाले परमेश्वर का एक गुण; 1 यूहन्ना 4:16; 1 कुरिन्थियों 13 अध्याय। 


ख) आनन्दः यह संसार की तथाकथित प्रसन्नता नहीं है, परन्तु बहुत ही गहरा आनन्द है; फिलिप्पियों 4:4।


ग) मेल (शान्ति): यह परमेश्वर की शान्ति है जो आत्मा को पूर्णतः सन्तुष्ट कर देती है; कुलुस्सियों 3:15।


घ) धीरजः स्वाभाविक मनुष्य अधीर है। सन्त इसके विपरीत होते हैं।


च) कृपाः (सहृदयता या दयालुता) यीशु अपनी दयालुता के लिए विख्यात था।


छ) भलाई (परोपकारिता): यह सद्गुण मसीही को भले कार्यों से भरपूर कर देता है।


ज) विश्वास (विश्वासयोग्यता): वह विश्वसनीय होता है और उस पर सभी अवसरों पर भरोसा रखा जा सकता है।


झ) नम्रता (विनम्र स्वभाव): वह नम्र है, यह विशेष रूप से हमारे लिए सच है; 2 तीमुथियुस 2:25।


ट) संयम (आत्म संयम): पीने, अभिलाषा, वस्त्र, आदत तथा फैशन में संयमी।


ये सभी नौ सद्‌गुण शरीर के घिनौने स्वाभाविक कार्यों के सर्वथा विपरीत या उलट है।


ये सभी नौ अनुग्रह मसीह में सुन्दर रूप में विद्यमान दिखाई देते हैं क्योंकि वह आत्मा से परिपूर्ण था।


2) फल मृत्यु का एक प्रमाण हैः यूहन्ना 12:24, "जब तक गेहूँ का दाना भूमि में पड़कर मर नहीं जाता, वह अकेला रहता है परन्तु जब मर जाता है, तो बहुत फल लाता है।"


   यदि हम मरे नहीं तो हम केवल शरीर के कार्यों को ही प्रकट करेंगे।


   फल इसलिए प्रमाण है; क्योंकि अहम् क्रूस पर नहीं चढ़ाया गया है, जैसा कि एक विश्वासी में होता है।


  बहुत से लोग फल-रहित रह जाते हैं क्योंकि उनका अहम् क्रूस पर नहीं चढ़ाया गया है, इसलिए वे अकेले ही रह जाते हैं।


  एकमात्र नया जीवन ही परमेश्वर की महिमा के लिए फल लाने में सक्षम है।


3) फल आवश्यक है: यूहन्ना 15:2, "जो डाली मुझमें है, और नहीं फलती, उसे वह काट डालता है।"

लूका 13:9, "आगे को फले तो भला, नहीं तो उसे काट डालना।" हृदय परिवर्तन के बाद यहाँ हमारे अस्तित्व का एकमात्र कारण फल लाना है। फल-रहित व्यक्ति लम्बे समय तक फलवन्त व्यक्ति के विशेषाधिकारों का लाभ नहीं प्राप्त कर सकता।


   फल-रहित होना और परमेश्वर का अनुग्रह, साथ नहीं रह सकते। फल-रहित होने से दूर रहिए।


  लूका 13:7, "देख, तीन वर्ष से मैं (बाग का स्वामी, परमेश्वर का प्रतिनिधि) फल ढूँढने आता हूँ।" परमेश्वर आत्मिक फल के आलावा अन्य किसी वस्तु से सन्तुष्ट नहीं होगा।


   याकूब 5:7, "गृहस्थ पृथ्वी के बहुमूल्य फल की आशा रखता है।" प्रभु यीशु मसीह सच्चे फल की प्रतीक्षा करता है (गलातियों 5:22, 23), वह हमारे जीवनों से फल चाहता है।


4) फल से पहचान होती है: मत्ती 12:33, "पेड़ (अपने) फल ही से पहचाना जाता है।"


   गिनती 13:26 में भेदियों ने कनान देश के फल दिखा कर प्रमाणित किया कि वहाँ की भूमि उत्तम है।


   नए नियम में सन्त उपयुक्त फल चित्रित करके दर्शाता है कि उसने नया जन्म पाया है। रूप और कार्य भले हैं, परन्तु महत्वपूर्ण प्रमाण फल है जिससे यह पहचान होती है कि पेड़ आम का है या सेब का; वह सन्त है या पाखण्डी।


   मत्ती 7:16-20, क्या झाड़ियों से अंगूर और ऊंटकटारों से अंजीर तोड़ते हैं? सन्त में शरीर के कोई भी कार्य नहीं, मिलने चाहिए, गलातियों 5:17-21। बहुधा हमारे जीवन शाप और आशिष, मिठास और कडुवाहट, अंजीर और जैतून का विरोधाभास होते हैं, याकूब 3:9-12। क्या यह कोई आश्चर्य की बात है कि संसार परेशान है?


5) फल का अभिप्रायः मत्ती 21:34, "जब फल का समय निकट आया, तो उसने अपने दासों को उसका फल लेने के लिए किसानों के पास भेजा।" फल मात्र पेड़ के लिए ही नहीं होता; दूसरे हमारे कार्यों को देख कर परमेश्वर की महिमा करते हैं। अपने स्वयं के हित के लिए मीठे फल उत्पन्न करना पिता का अनादर करना है।


6) फल का श्रोतः होशे 14:8, "मुझी से तू फल पाया करेगा।" इसका श्रोत परमेश्वर में है। यूहन्ना 15:4, "जैसे डाली यदि दाखलता में बनी न रहे, तो अपने आप से नहीं फल सकती, वैसा ही तुम भी यदि मुझ में बने न रहो तो नहीं फल सकते।"

स्वाभाविक फल भ्रष्ट शारीरिक कार्य है। सन्त जब मसीह में गहरी जड़ें पकड़ लेता है तो वह बहुतायत से फल लाता है; इफिसियों 3:17, 18 ।


7) फल फैलाव का श्रोत है: उत्पत्ति 1:11 "फिर परमेश्वर ने कहा, पृथ्वी से फलदाई वृक्ष भी जिनके बीज उन्हीं में एक एक की जाति के अनुसार होते हैं उगें।" बीज फल है, यदि फल नहीं तो बीज भी नहीं होता और न ही प्रजनन।


    यदि हमारे जीवन में आत्मिक फल नहीं है, तो हम कुछ भी उत्पन्न नहीं कर सकते। इस अवस्था में हमारा जीवन सुसमाचार के लिए एक आशिष की अपेक्षा बाधा बन जाता है।


    कुलुस्सियों 1:10, "तुम में हर प्रकार के भले कामों का फल लगे, और परमेश्वर की पहचान में बढ़ते जाओ।"

क्या हमने कुछ उत्पन्न किया है? क्या यह इसलिए है कि हम में आत्मा का फल कभी नहीं उत्पन्न हुआ?



2. आत्मा के वरदान


   1) वरदानों की किस्मेंः 1 कुरिन्थियों 12:8-10, बुद्धि, ज्ञान, विश्वास, चंगाई, सामर्थ्य के काम, भविष्यद्वाणी, आत्माओं की परख, अन्य अन्य भाषाएं और अन्य-अन्य भाषाओं का अर्थ बताना है।


   1 कुरिन्थियों 12:28 के अनुसार ये वरदान किसी को प्रेरित, भविष्यद्वक्ता, शिक्षक, सामर्थ्य के काम करने, चंगा करने, उपकार करने, प्रधान और नाना प्रकार की भाषाए बोलने के योग्य बना देते हैं।


    इफिसियों 4:11-16 वरदानों में ये वरदान भी जोड़ देता हैः सुसमाचार सुनाने वाले, उपदेशक और रखवाले।

रोमियों 12:6-8 इसमें और अधिक वरदान जोड़ देता है: सिखाने, दान देने, अगुआई करने और दया करने का वरदान (सम्भवतः 24 भिन्न वरदान हैं)।


2) वरदान प्रभुसत्तात्मक रूप (Sovereignly) में दिए जाते हैं:

    1 कुरिन्थियों 12:11, "परन्तु ये सब प्रभावशाली कार्य वही एक आत्मा करवाता है, और जिसे जो चाहता है वह बांट देता है।"

पवित्र आत्मा नए विश्वासी को मसीह की देह में स्थापित कर देता है और उसे देह के उस विशेष भाग का कार्यभार सौंप देता है; इफिसियों 2:21,22।


   स्थिति का चुनाव करना परमेश्वर का विशेषाधिकार है। यह उसकी प्रभुसत्तात्मक इच्छा ही है। जैसे ही वह स्थान चुन लेता है, वह नई कोशिका को उसी के अनुरूप डालता जाता है।


3) वरदान हितकारी है: 1 कुरिन्थियों 12:7, "किन्तु सब के लाभ पहुँचाने के लिए हर एक को आत्मा का प्रकाश दिया जाता है।"

यह उस कोशिका को अधिक उपयोगी और लाभदायक बनाने के लिए दिया जाता है। जब विश्वासी को एक नया वरदान दिया जाता है तो उससे समस्त देह को लाभ प्राप्त होता है।

   मानव देह में अनावश्यक अंग नहीं है (यहाँ तक कि उण्डुकपुच्छ (Appendix) का भी कार्य है) इसी प्रकार मसीह की देह में भी अनुपयोगी, आरामतलब लोग नहीं होने चाहिए।


   मसीह की देह में हमारा बपतिस्मा और मन-परिवर्तन (1 कुरिन्थियों 12:13) केवल इसलिए नहीं हुआ कि हम नरक से बच जाएं; परन्तु इसलिए भी हुआ कि हम उसकी देह के लिए सहायता और आशिष हो। मसीह की देह, अदृश्य कलीसिया, को अधिक मजबूत होना चाहिए

क्योंकि आपको उसमें रखा गया है और आपको पवित्र आत्मा द्वारा विशेष वरदान देकर योग्य बना दिया गया है।


4) वरदानों की चाह होनी चाहिएः 1 कुरिन्थियों 12:31, "तुम बड़े से बड़े वरदानों की धुन में रहो।"

   केवल एक दो वरदानों से ही सन्तुष्ट न हो जाइए। दूसरे ऐसे वरदानों की खोज कीजिए और उनके लिए प्रार्थना कीजिए जो आपको उस विशेष स्थिति के लिए सहायक हो जो देह में प्रभु ने आपको प्रदान की है।

  पौलुस भविष्यद्वाणी को सबसे अधिक चाहने योग्य वरदान कहता है - 1 कुरिन्थियों 14:1, 39

   मत्ती 25:14-30 में कुछ को एक तोड़ा (वरदान) दिया गया, कुछ को दो और कुछ को पाँच। जिस व्यक्ति को पाँच मिले थे उसने पाँच और कमाए, और एक तोड़े को, जिसे मिट्टी में गाड़ कर छिपा दिया गया था, मत्ती 25:28 में वही तोड़ा उस दस तोड़े वाले को दे दिया गया और अन्त में उसके पास ग्यारह तोड़े (वरदान) हो गए।

   मन-परिवर्तन पर हमारे पास केवल एक या दो वरदान हो सकते हैं, परन्तु हमें परमेश्वर की महिमा के लिए अधिक वरदानों की खोज में लगे रहना चाहिए।

   व्यक्तिगत रूप से मेरा विश्वास है कि जब मैंने बाइबल स्कूल से स्नातक पास किया तो मेरे पास केवल एक-दो वरदान ही थे, परन्तु विश्वास कीजिए कि पिछले बीस वर्षों में परमेश्वर ने मुझे कई दूसरे वरदान दिए हैं।


5) वरदान प्रत्येक प्राप्तकर्ता के अनुकूल होते हैं: 1 कुरिन्थियों 7:7, "हर एक को परमेश्वर की ओर से विशेष विशेष वरदान मिले हैं;

   किसी को किसी प्रकार का, और किसी को किसी और प्रकार का।" मसीह में हर एक विश्वासी के पास एक वरदान है; एक भी व्यक्ति को भुलाया नहीं गया है। प्रशासक को उपदेश के वरदान की आवश्यकता नहीं है। पवित्र आत्मा प्रत्येक कोशिका को उसके कार्य के अनुरूप वरदान देता है।


6) वरदानों का प्रयोग आवश्यक हैः 1 तीमुथियुस 4:14, "उस वरदान से जो तुझमें है निश्चिन्त मत रह।"

   कुछ व्यक्ति अपने वरदानों को इसलिए छिपाते हैं क्योंकि वे उतने प्रभावशाली नहीं होते जितने कि दूसरे व्यक्ति होते हैं। जिस वरदान का प्रयोग नहीं किया जाता है, उसमें जंग लग जाएगा और वह हमसे वापिस भी लिया जा सकता है; मत्ती 25:28।

व्यक्तिगत रूप से मैं अनुभव करता हूँ कि मैंने लेखन का वरदान इसलिए खो दिया क्योंकि मैं अट्ठारह मास तक साम्यवाद के आधीन रहने के कारण निष्क्रिय रहा, और उस वरदान का प्रयोग करने में असफल रहा


7) वरदानों को उन्नत बनाया जाना चाहिएः 2 तीमुथियुस 1:6, "तू परमेश्वर के उस वरदान को जो तुझे मिला है चमका दे।"

   परमेश्वर के राज्य में वरदान को लाभदायक बनाने के लिए निरन्तर उसका व्यावहारिक प्रयोग किया जाना आवश्यक है। आइए इन स्वर्गीय वरदानों को निरन्तर उन्नत बनाने पर अपना ध्यान केन्द्रित करें।


सारांश

  ये स्वाभाविक प्रतिभाएं नहीं हैं। ये विशेष वरदान है जो आत्मा द्वारा दिए गए हैं।

   आइए जबकि हमें उत्तम से उत्तम वरदान दिए गए हैं, तो हम उसी के अनुरूप फल उत्पन्न करें।