हमें बुराई को किस सीमा तक रोकना चाहिये ? To What Extent Should We Stop Evil ?
प्रमुख पद
निर्गमन 20:13 तुम खून न करना। निर्गमन 21:12-17:22:18-10 कुछ निश्चित् पापों के लिये मृत्यु की सजा दी गयी है।
यहोशू 8:1-8 परमेश्वर ने युद्ध के द्वारा विनाश की स्वीकृति दी।
शमूएल 15:2-3 परमेश्वर ने युद्ध के द्वारा दंड की स्वीकृति दी।
मत्ती 5:38-48 बुरे व्यक्ति का सामना मत करना। यदि कोई व्यक्ति तुम्हारे एक गाल पर थप्पड़ मारे, तो उसकी ओर अपना दूसरा गाल भी फेर दो... अपने शत्रुओं से प्रेम करो।
लूका 6:30 जो व्यक्ति तुम से कुछ मांगे तो उसे दे दो। यदि कोई व्यक्ति तुम से तुम्हारी कोई चीज़ ले, तो उससे वापस मत मांगो।
रोमियों 13:1-7 परमेश्वर ने बुराई को दंड देने के लिये सरकार की स्थापना की है। | पतरस 2:13-14 परमेश्वर ने ग़लत कार्य करने वाले व्यक्तियों को सजा देने के लिये अधिकारियों को नियुक्त किया है।
प्रश्न
यीशु मसीह ने हमें सिखाया और दर्शाया है कि परमेश्वर प्रेम है। यीशु ने पुराने नियम की व्यवस्था को समाप्त नहीं किया (मत्ती 5:17)। तथापि, व्यवस्था की कही गयी बातों की अपेक्षा यीशु की शिक्षाएँ गंभीर व गहरी और अधिक आत्मिक थीं। व्यवस्था लोगों के बाहरी व्यवहार से संबंधित थी, परंतु यीशु ने लोगों के हृदय के विचारों पर ध्यान दिया। उसने व्यवस्था की कई बातों को लेकर, न्याय के साथ प्रेम की मांग करने के द्वारा उन्हें अधिक कठिन बना दिया।
उदाहरणार्थ, व्यवस्था के द्वारा हत्या को दण्डनीय माना गया है, लेकिन यीशु ने किसी व्यक्ति के हृदय के क्रोध और घृणा को दंडनीय बताया है (मत्ती 5:21-22)।
व्यवस्था ने व्यभिचार को दंडनीय बताया है, लेकिन यीशु ने किसी व्यक्ति के हृदय की लालसा को दंडनीय कहा है (मत्ती 5:27-28)।
हमें व्यवस्था में अपने पड़ोसी से प्रेम करने की आज्ञा दी गयी है, जब कि यीशु ने हमें अपने शत्रुओं से प्रेम करने की आज्ञा दी है (मत्ती 5:43-47 )।
व्यवस्था में अत्याधिक व्यक्तिगत बदला (पलटा) लेने की भावना को निषेध बताया गया है, जबकि यीशु ने किसी भी प्रकार का बदला लेने या बदले की भावना रखने से मना किया है।
उसने कहाः "बुरे का सामना न करना, परंतु जो कोई तेरे दायें गाल पर थप्पड़ मारे, उसकी ओर दूसरा भी फेर दे। यदि कोई तुझ पर नालिश करके तेरा कुरता लेना चाहे, तो उसे दोहर भी ले लेने दे मत्ती 5:39-40)।
यीशु ने यह भीकहाः "जो कोई तुझ से मांगे, उसे दे; और जो तेरी वस्तु द्दीन ले, उससे वापस मत मांग" (लूका 6:30)। उसने आगे कहा कि जैसा तुम चाहते हो कि लोग तुम्हारे साथ करें, तुम भी उनके साथ वैसा ही करो, (लूका 6:31; मत्ती 7:12)।
बुराई का विरोध करने से संबंधित अनेक प्रश्न सामने आते हैं।
क्या हम बुराई का बिल्कुल विरोध नहीं करना चाहते हैं?
क्या हम ग़लत कार्य करने वाले व्यक्तियों का बलपूर्वक विरोध कभी नहीं कर सकते हैं?
पौलुस और पतरस ने कहा कि परमेश्वर ने सरकारी अधिकारियों की नियुक्ति ग़लत काम करने वाले व्यक्तियों को सजा देने के लिये की है, वे व्यर्थ ही तलवार नहीं लिये रहते हैं (रोमियों 13:1-7: पतरस 2:13-14)।
क्या सभी संस्थायें और सरकार किसी व्यक्ति के प्रति हिंसा या हानि का उपयोग करने की आज्ञा कभी नहीं देती हैं? यदि ऐसा है, तो क्या एक मसीही पुलिस हो सकता है अथवा अपराधियों से लड़ने के लिये बंदूक या गदा का उपयोग कर सकता है?
क्या एक मसीही न्यायालय में न्यायाधीश हो सकता है तथा शारीरिक यातना अथवा मृत्यु के दंड की सजा दे सकता है?
क्या एक मसीही सेना में सिपाही होकर युद्ध में लड़ सकता है?
पहली धारणा: किसी व्यक्ति को कभी बुराई का विरोध नहीं करना चाहिये
अनेक मसीही यह मानते हैं कि किसी भी व्यक्ति को किसी भी प्रकार की परिस्थितियों में बुरे लोगों के विरुद्ध शक्ति प्रयोग नहीं करना चाहिये। यीशु ने हमें उसके पीछे चलने के लिये कहा है (मरकुस 8:34-35)।
उसने हमारे लिये खुद एक नम्र सेवक बनकर उदाहरण प्रस्तुत किया है (मरकुस 10:42-45)।
हमें यीशु के साथ उसके दुख में सहभागी होने की आज्ञा दी गयी है (पतरस 2:19-24)।
पौलुस कहता है कि तुम बुरे लोगों के साथ बुराई मत करो, वरन् बुराई को भलाई से जीत लो (रोमियों 12:17-21:1 थिस्सलुनिकियों 5:15)।
पतरस भी हमें अभिशाप के बदले आशीष देने के लिये कहता है (पतरस 3:8-9)।
ये मसीही विश्वास करते हैं कि मसीह में व्यवस्था पूरी की गयी (मत्ती 5:17), जिसमें प्रेम का नैतिक मार्ग अपेक्षाकृत अधिक कठिन तो है लेकिन ऊँचा है। चूंकि यीशु ने पुराने नियम की व्यवस्था को " प्रेम की व्यवस्था" में बदल दिया है (रोमियों 13:10)
इसलिये परमेश्वर ने पुराने नियम में किस बात की अनुमति दी है, जो आज के मसीहियों के लिये मापदंड के रुप में उपयोग में नहीं लायी जा सकती है।
अतः ये मसीही नहीं मानते हैं कि विश्वासी सेना में सैनिक बनकर लड़े और दूसरे मनुष्यों की हत्या करे। ये इस बात की ओर संकेत करते हैं कि पाप युद्ध को जन्म देता है (याकूब 4:1-4)।
इसके साथ ही साथ जो तलवार चलाते हैं, वे सब तलवार से नाश किये जायेंगे (मत्ती 26:52)।
ये मसीही इस बात पर ध्यान देते हैं कि पुराने नियम में, आरंभ के अधिकांश युद्ध स्वयं परमेश्वर के द्वारा लड़े गये, जिनमें इस्त्राएलियों का बहुत थोड़ा सहयोग था (निर्गमन 14:13, 14, 24-28; यहोशू 5:13-15:6:15; न्यायियों 4:14-15:7:2-7,22)।
बाद के युद्ध, जो परमेश्वर की ओर से स्वीकृत नहीं थे, को भविष्यद्वक्ताओं ने निन्दनीय बताया: क्योंकि उन्होंने इस्त्राएलियों को सेनाओं पर नहीं, परंतु परमेश्वर पर निर्भर रहने की चेतावनी दी थी (यशायाह 31:1-3; जकर्याह 4:6)।
यहां तक कि पुराने नियम में मनुष्य के लिये परमेश्वर का मापदंड स्पष्ट थाः शांतिपूर्वक रहना अर्थात् मेल-मिलाप के साथ रहना। उदाहरणार्थ: परमेश्वर के मंदिर का निर्माण करने संबंधी दाऊद की विनती ठुकरा दी गयी; क्योंकि उसके हाथ युद्ध में खून से रंगे थे ( इतिहास 28:3 )
इनमें से अधिकांश मसीही युद्ध के समानुरुप दृष्टिकोण के अनुसार मानते हैं कि मृत्युदंड भी गलत है। ये मसीही "बुराई का सामना मत करो" के संदर्भ से संबंधित पदों के साथ ही, उल्लेख करते हैं कि यीशु ने व्यभिचार में पकड़ी गयी स्त्री को पत्थरवाह करने से लोगों को मना किया (यूहन्ना 8:1-11)।
इसलिये इनमें से अनेक मसीही मानते हैं कि एक मसीही को न्यायधीश या सरकार का सद्स्य नहीं होना चाहिये। क्योंकि तब उसे बुरे लोगों को दंड देने के लिये "तलवार साथ में रखना पड़ेगा तथा उसे निर्णय लेना होगा कि कब मृत्युदंड दिया जाये अथवा वह युद्ध में कब जाये। ये मानते हैं कि एक मसीही पुलिस या सिपाही नहीं हो सकता है; क्योंकि सिपाही को समाज और जनता की सुरक्षा के लिये अपराधी को हिंसात्मक रुप से शारीरिक यातना देना पड़ेगा अथवा उसका प्राण लेना पड़ेगा। ये विश्वासी संकेत करते हैं कि हम पृथ्वी के नहीं, परंतु स्वर्ग के नागरिक हैं (फिलिप्पियों 3:20)। हमें शांतिपूर्ण अर्थात् मेलमिलाप का जीवन जीने के लिये बुलाया गया है (इब्रानियों 12:14)।
यद्यपि ये मसीही अपने आपको सरकार का एक भाग बनाने से इंकार करते हैं; तौभी वे अपने देश की सरकार के अधीन रहते हैं। उदाहरणार्थ, ये कर चुकाते या भुगतान करते हैं और सरकारी अधिकारियों के लिये प्रार्थना करते हैं (मरकुस 12:13-17, रोमियों 13:1-71 तीमुथियुस 2:1-2; 1 पतरस 2:13-17)।
दूसरी धारणा: सिर्फ अधिकार प्राप्त व्यक्तियों को ही बुराई का विरोध करना चाहिये
अनेक अन्य मसीही यीशु के वक्तव्यों की अलग-अगल व्याख्या करते हैं। ये मसीही मानते हैं कि प्रत्येक विश्वासी को अपने व्यक्तिगत जीवन में यीशु के वचन का पालन करना चाहिये। लेकिन यीशु ने उन सरकारों, सिपाहियों और अधिकारियों के बारे में बातें नहीं की, जो अपना सार्वजनिक कर्तव्य निभाते हैं। अगर किसी विश्वासी को उसके "भाई" अथवा "विरोधी" ने दुख पहुंचाया है, तो यीशु के अनुसार, उसे अपना क्रोध छोड़कर अपने उस भाई के साथ "मेल-मिलाप" कर लेना चाहिये अथवा अपने विरोधी के साथ "समझौता" कर लेना चाहिये (मत्ती 5:22-26)।
यदि हमें किसी ने थप्पड़ मारा है, तो हमें उससे पलट कर झगड़ा नहीं करना चाहिये या बदला नहीं लेना चाहिये; परंतु अपना "दूसरा गाल उसकी ओर फेरकर" उसके प्रति अपना प्रेम प्रदर्शित करना चाहिये (मत्ती 5:38-41)।
अगर कोई हमसे कुछ मांगे, तो हमें उसे देने के लिये तैयार रहना चाहिये (मत्ती 5:42)। यहां तक कि हमें ऐसा ही अपने विरोधियों के साथ भी करना चाहिये (लूका 6:35)। इस दूसरी धारणा के अनुसार यीशु ने ये बातें केवल अपने व्यक्तिगत लोगों के संबंध में कहीं।
आगे ये मसीही कहते हैं कि यीशु एक निःशस्त्र राष्ट्र में अपने व्यक्तिगत लोगों से बातें कर रहा था। उसने ग्रामीण जीवन के दैनिक बाद-विवादों के बारे में सोचा होगा। यीशु के श्रोताओं ने उसके वचन को पुलिस अथवा सेना के संदर्भ में ग्रहण नहीं किया होगा। इस दृष्टिकोण के आधार पर, इन अधिकारियों को बुराई का सामना करना चाहिये।
ये मसीही आगे कहते हैं कि यदि अधिकारी गलत कार्य करे, तो उनका विरोध करना उचित है। नये नियम में अधिकारियों का विरोध करने संबंधी तीन उदाहरण पाये जाते हैं।
पहला, यीशु ने मंदिर की सफाई करते समय रस्सियों का एक कोड़ा बनाकर और पैसे के पीढ़ों को उलटकर अपना क्रोध प्रदर्शित किया और शारीरिक रूप से बुरे लोगों का सामना किया (यूहन्ना 2:13-16)।
दूसरा, यीशु ने अपनी अदालती कारवाई के दौरान अपने गाल पर खाये एक नाचायज थप्पड़ का विरोध किया (यूहन्ना 18:19-23)।
पौलुस ने उच्च न्यायालय में अपने व्यक्ति के लिये निवेदन करते के द्वारा बुराई का विरोध किया (प्रेरितों के काम 25:11)। ये मसीही इन उदाहरणों के कारण विश्वास करने हैं कि हमें भी इसी प्रकार बुराई का सामना करना चाहिये।
युद्ध के संदर्भ में मसीहियों का यह समूह युद्ध के पापमय होने को स्वीकार करता है। लेकिन ये पौलुस के इस तथ्य को महत्व देते हैं कि सरकार के द्वारा तलवार, बुरे कार्य करने वाले व्यक्तियों को दंड देने के लिये प्रयुक्त किये जाने का प्रमाण है (रोमियों 13:4)।
यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले ने सैनिकों को सच्चा पश्चाताप प्रदर्शित करने के लिये कहा। उसने उन्हें सुझाव दिया कि उन्हें अपने वेतन से संतुष्ट होना चाहिये। उसने उन्हें सेना छोड़ने के लिये नहीं कहा (लूका 3-14)।
ये मसीही इन बातों में अंतर करते हैं। एक ओर वे बातें हैं, जिनके लिये परमेश्वर ने पुराने नियम में अनुमति दी। परंतु यीशु ने कहा कि हमें अब उन बातों को करने की जरुरत नहीं है; जैसे तलाक (मत्ती 5:31) और शपथ (मत्ती- 5:33)। दूसरी ओर ये बाते हैं जिनके लिये परमेश्वर ने पुराने नियम में विशेष रीति से आज्ञा दी।
ये मसीही मानते हैं कि यीशु ने भी इन बातों से इंकार नहीं किया; जैसे न्यायिक मृत्युदंड अथवा न्याय व तर्क पूर्ण आधार पर युद्ध ( गिनती 31:1-7; यहोशू अध्याय 6-8 न्यायियों 4:14-16:7:2-22; । शमूएल 15:2-3)।
यूहन्ना, अंतिम दिनों से संबंधित अपने दर्शन में यीशु को, परमेश्वर के विरुद्ध युद्ध करने वाले लोगों को पूर्णतया नाश करने हेतु आने वाले योद्धा अगुवा के रूप में प्रस्तुत करता है (प्रकाशितवाक्य 19:11-19)। परिणामतः यद्यपि ये मसीही अधिकांश युद्ध को अन्याय पूर्ण और गलत मानते हैं; तौभी ये स्वीकार करते हैं कि कुछ युद्ध "न्यायपूर्ण" और आवश्यक हैं।
इनमें से अधिकांश मसीहियों का विश्वास है कि मृत्युदंड की अनुमति अभी भी दी गयी है। यहां तक कि नये नियम में परमेश्वर ने पतरस के द्वारा परमेश्वर के विरुद्ध झूठ बोलनेवाले दो व्यक्तियों के लिये मृत्युदंड की घोषणा करवायी (प्रेरितों के काम 5:1- 10)।
ये मसीही मानते हैं कि युद्ध अथवा मृत्युदंड परमेश्वर की सिद्ध इच्छा नहीं है। लेकिन कुछ प्रकार के अन्याय को रोकने अथवा कुछ पापों की गंभीरता को प्रदर्शित करने के लिये परमेश्वर को अब तक मृत्युदंड की जरुरत होती है।
ये मसीही सरकार में सहभागी होने से संबंधित पौलुस के इस निर्देश पर ध्यान देते हैं कि एक मसीही को सरकार, उसके नियम और उसके करों के अधीन रहना चाहिये (रोमियों 13:1-7)। यहांतक कि यद्यपि तत्कालीन रोमी सम्राट मसीहियों को क्रूर यातनाएं देता था; तौभी पौलुस ने कहा कि अधिकारी परमेश्वर के द्वारा नियुक्त किये जाते हैं और वे परमेश्वर के सेवक हैं (रोमियों 13:1, 4, 6)।
कर महसूल करनेवालों को अपनी नौकरी नहीं छोड़ना चाहिये; लेकिन उन्हें न्यायपूर्ण रीति से कर महसूल कर जमा करना चाहिये (लूका 3:12-13 रोमियों 13:6-7)।
ये मसीही मानते हैं कि अगर विश्वासी, सरकार अथवा पुलिस के अंग या सदस्य इस उद्देश्य से बनते हैं वे सरकार अथवा पुलिस को परमेश्वर के द्वारा बताये गये न्याय के मार्ग और उपयुक्त समय पर दया प्रदर्शित करने की दिशा में प्रोत्साहित करेंगे, तो उनके लिये यह उचित हैं। इन मसीहियों का कथन है कि मसीहियों को सरकार में "ज्योति" बनना चाहिये (मत्ती 5:14-16)।
इसके साथ ही उन्हें बदला लेने या अपनी स्वार्थपूर्ण बातों की सुरक्षा के लिये "वाद-विवाद "और झगड़ा" नहीं करना चाहिये। परंतु उन्हें सरकार या पुलिस के सदस्य के तौर पर अपराधियों को दंड देने और सार्वजनिक रुचियों से संबंधित वस्तुओं की सुरक्षा के लिये मदद करनी चाहिये।
तीसरी धारणाः व्यक्तिगत लोगों के द्वारा भी बुराई का विरोध किया जा सकता है।
तीसरे समूह के मसीही मानते हैं कि अगर आवश्यक हो, तो कोई व्यक्ति हिंसा के द्वारा दुष्ट व्यक्ति का विरोध कर सकता है। ये मसीही इस बात की ओर संकेत करते हैं कि जब यीशु ने बुराई का विरोध करने संबंधी शिक्षाएँ दीं, तब उसका मतलब नहीं था कि ये शिक्षाएँ प्रत्येक परिस्थिति में लागू होंगी।
इन मसीहियों के अनुसार स्पष्ट अपवादों को यीशु के श्रोताओं ने बिना बताये या जाने ही, समझ लिया होगा। उदाहरणार्थ, अगर कोई नशे में चूर शराबी एक नादान व निर्दोष व्यक्ति की हत्या करने का प्रयास करता है, तो हर संभव उसका विरोध होना चाहिये।
ये आगे कहते हैं कि बच्चों को उनके माता-पिता को मारने (थप्पड़) अथवा मिठाई वगैर: जबरदस्ती छीनकर खाने की अनुमति नहीं देना चाहिये। इनके अनुसार ऐसे कई उदाहरण हैं जिनमें परमेश्वर चाहता है कि हम बुराई का विरोध करें।
ये मसीही यह भी मानते हैं कि अगर किसी व्यक्ति की खुद की वस्तुओं के लिये उसे धमकी दी जाती है, तो वह व्यक्ति ऐसी बड़ी अपराधिक हिंसा का विरोध कर सकता है। इनके अनुसार यीशु के कुछ कथन अतिशयोक्ति पूर्ण वक्तव्य हैं, जो उसकी शिक्षा को अधिक भिन्न और प्रभावशाली बनाते हैं/लेकिन ये अक्षरशः यथार्थ रूप में नहीं समझे जाते हैं; जैसे मत्ती 5:29-30 ये इस बात की ओर ध्यान देते हैं कि यीशु के समय में किसी विशिष्ट शिक्षक ने ऐसे अतिशयोक्तिपूर्ण वक्तव्यों का बार-बार प्रयोग किया।
ये इस बात से सहमत हैं कि मसीहियों को चुनौती मिलने पर भी दूसरों से झगड़ा या लड़ाई नहीं करना चाहिये (मत्ती 5:39)। इसके साथ ही अगर कोई व्यक्ति हमें स्थायी हानि पहुंचाने और जान से मारने की कोशिश करता है, तो हमें अपनी सुरक्षा के लिये विरोध करना चाहिये।
मसीहियों को अपने विरोधियों की भलाई करना चाहिये और सचमुच जरुरतमंद व्यक्ति पर दया करनी चाहिये (मत्ती 5:43-44; लूका 6:30-36)। परंतु ये इस बात से असहमत हैं कि किसी गैर जरुरतमंद व्यक्ति के मांगने अथवा चुराने की कोशिश करने पर, हमें अपना पूरा पैसा या पूरी संपति नहीं देना चाहिये।
ये मसीही सरकार, पुलिस और सेना में भाग लेने संबंधी दूसरी धारणा के सभी तर्क को स्वीकार करते हैं। ये मानते हैं कि इस प्रकार की सहभागिता सिर्फ स्वीकार करने के योग्य ही नहीं; वरन् परमेश्वर की इच्छा भी है।
कुछ मसीही इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि इन तीन प्रभुख धारणाओं में से कुछ विचार सही हैं। प्रत्येक मसीही को पूर्ण बाइबल अध्ययन, मनन, प्रार्थना और पवित्र आत्मा से मदद प्राप्त करने के बाद ही उपरोक्त प्रश्नों से संबंधित किसी निर्णय पर पहुंचना चाहिये।
कलीसिया के संपूर्ण इतिहास में इन प्रश्नों के संबंध में परिपक्व आत्मिक मसीहियों के भिन्न विचार पाये जाते हैं।
बाइबल में इन प्रश्नों के निश्चित् उत्तर नहीं दिये गये हैं। हमारी धारणा जो भी हो, हमें अलग धारणा को माननेवाले व्यक्तियों को दोषी या गलत नहीं मानना चाहिये और न ही इन विषय पर उनसे वाद-विवाद करना चाहिये।
सताव (प्रताड़ना) हमारा प्रत्युत्तर
विश्वासियों पर सताव का प्रश्न, बुराई का सामना या विरोध करने के प्रश्न से संबंधित है। सताव, हमें हमारे भले कार्य अथवा यीशु मसीह पर हमारे विश्वास के कारण दूसरे लोगों के द्वारा दंड के रुप में दिया गया कष्ट या दुख है (मत्ती 5:10-11; लूका 6:22;। पतरस 2:20)
नये नियम में शिक्षा दी गयी है कि सभी मसीहियों को किसी न किसी प्रकार से सताया जायेगा (मरकुस 13:9; लूका 21:12;2 तीमुथियुस 3:12)।
यीशु ने हमें यह भी सिखाया कि मसीही होने के नाते हमें किस प्रकार सताव का प्रत्युत्तर देना चाहिये। उसने हमें बताया है कि हमें डरना नहीं है (मत्ती 10:26), परंतु आनंदित होना है (मत्ती 5:10-12)।
पौलुस ने कहा कि वह कष्ट झेलने में आनंद महसूस करता है; क्योंकि तब वह परमेश्वर के अनुग्रह का अनुभव कर सकता है जो उसे कुछ भी सहन करने में सक्षम बनाने के लिये हमेशा पर्याप्त था (2 कुरिंथियों 12:7-10)।
तथापि, यीशु ने हमें सांप के समान चालाक और अपने स्वरक्षक बनने के लिये कहा है (मत्ती 10:16-17)I
हमें निर्देश दिया गया है कि हम अपने सताने वालों को आशीष दें ... शाप न दें (रोमियों 12:14); हम उनसे प्रेम करें... और उनके लिये प्रार्थना करें (मत्ती 5:44)।
हमें न्यायालयों और बंदीगृहों में सरकारी अधिकारियों के सामने प्रस्तुत किया जायेगा, किंतु हमें नहीं घबराना चाहिये कि हम उनके सामने क्या कहेंगे। क्योंकि यीशु, पवित्र आत्मा के द्वारा हमें उसी समय बतायेगा कि हमें क्या कहना है (मरकुस 13:9-11: लूका 21:12-19)।
यीशु ने हमें ऐसे आक्रमण का विरोध करने के लिये नहीं कहा है जो उस पर विश्वास करने के कारण हम पर किये जाते हैं।
यीशु ने अपने पकड़े जाने के पहले अपने चेलों से तलवारें खरीदने के लिये कहा (लूका 22:35-38)। परंतु उसने अपनी सुरक्षा के लिये उन्हें तलवार चलाने की अनुमति नहीं दी (लूका 22:51)।
इसके विपरीत उसने उन्हें चेतावनी दी कि जो तलवार चलायेंगे, वे उसी से नाश हो जायेंगे (मत्ती 26:52)। अधिकांश मसीही सोचते हैं कि यीशु पर अपना विश्वास रखने के कारण सताये जानेवाले विश्वासियों को अपनी सुरक्षा के लिये हिंसक साधनों का प्रयोग कभी नहीं करना चाहिये।
सारांश
यद्यपि यीशु की उपरोक्त कठिन बातों के संबंध में हमारे विचार पर स्पर भिन्न हैं; तौभी सभी मसीही इस बात पर सहमत हैं कि हमें यथासंभव शांति से रहना चाहिये (इब्रानियों 12:14)।
हम भविष्य में उस दिन पर आशा लगाये हुए हैं, जब पृथ्वी पर परमेश्वर का राज्य स्थापित किया जायेगा और "वह बहुत देशों के लोगों का न्याय करेगा, और दूर दूर तक की सामर्थी जातियों के झगड़ों को मिटायेगा। ताकि वे अपनी तलवारें पीटकर हल के फाल और अपने भालों से हंसिया बनायेंगे। तब एक जाति दूसरी जाति के विरुद्ध तलवार फिर न चलायेगी" (यशायाह 2:41 मीका 4:3)। तब तक, "तुम जहां तक हो सके अपनी पूरी कोशिश के साथ सब लोगों के साथ मेल-मिलाप रखो" (रोमियों 12:18)।

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