परीक्षा के द्वारा आगे बढ़ना
धन्य है वह मनुष्य जो परीक्षा में स्थिर रहता है, क्योंकि वह खरा निकलकर जीवन का वह मुकुट पाएगा जिसकी प्रतिज्ञा प्रभु ने अपने प्रेम करने वालों से की है। याकूब 1:12
मेरी परीक्षाएं ही मेरे आत्मिक जीवन का स्वामी है।
प्रत्येक परीक्षा भलाई करने का एक अवसर होता है।
जिस दिन आप ये समझ जाएंगे कि परीक्षा आपके लिए भलाई करने का मात्र एक अवसर है तो उसी समय से ये आपके आत्मिक जीवन की परिपक्वता के लिए गिरावट का नहीं बल्कि उन्नति का साधन बन जाएँगी। परीक्षा केवल चुनाव का अवसर देती है। जबकि आपको नाश करने के लिए परीक्षा शैतान का पहला हथियार है, वहीं परमेश्वर इसे आपके विकास के लिए इस्तेमाल करना चाहते हैं। हर बार जब आप पाप के बदले, भलाई करना चुनते हैं, तब आप मसीह के चरित्र में आगे बढ़ते हैं।इसे समझने के लिए, आपको पहले यीशु की चारित्रिक विशेषताओं की पहचान करनी आवश्यक है। उनके चरित्र का एक सबसे संक्षिप्त विवरण पवित्र आत्मा के फल हैं: “पर आत्मा का फल प्रेम, आनन्द, शान्ति, धीरज, कृपा, भलाई, विश्वास, नम्रता और संयम है।"
ये नौ विशेषताएँ उन महान आज्ञाओं को विस्तृत एवं मसीह यीशु के सुन्दर चित्र का वर्णन करती हैं। यीशु ही वो एकलौते मनुष्य हैं जिनमें प्रेम, आनन्द, शान्ति, धैर्य और बाकि अन्य फल सम्मिलित है। आत्मा के फल पाने के लिए मसीह के जैसे बनना होगा।
फिर, पवित्र-आत्मा कैसे आपके जीवन में उन नौ फलों को उत्पन्न करेगी? क्या ये एक क्षण में उत्पन्न हो जाएंगे? क्या आप किसी दिन नींद से जागे और अचानक से इन नौ पूर्ण विकसित विशेषताओं से भर जाएँगे? नहीं। यह सम्भव नहीं है क्योंकि फल हमेशा धीरे-धीरे बढ़ता और पकता है।
यह अगला वाक्य एक अत्यन्त महत्वपूर्ण आत्मिक सत्य है जो आपने शायद कभी न सीखा हो: परमेश्वर, ऐसी परिस्थितियों के द्वारा जिनमें आपको एकदम विपरीत विशेषताओं को प्रकट करने का अनुभव होता है, आपके जीवन की आत्मा के फल का विकास करते हैं। चारित्रिक विकास हमेशा चुनाव पर निर्भर होता है और परीक्षा ही ये अवसर प्रदान करती है।
उदाहरण के लिए, हमें प्रेम सिखाने के लिए, परमेश्वर हमारे चारों ओर कुछ ऐसे लोगों को रखते हैं जिन्हें प्रेम करना नहीं आता। जब हम उनकी ओर फिरते हैं तब, परमेश्वर हमें दुःख के बीच असली आनन्द सिखाते हैं। प्रेम करने के लिए किसी चरित्र की जरूरत नहीं है। प्रसन्नता बाहरी परिस्थितियों पर निर्भर होती है, मगर आनन्द परमेश्वर के साथ आपके सम्बन्धों के आधार पर निर्भर होता है।
हमारी भीतरी सच्ची शांति का विकास परमेश्वर हमें हमारी मर्जी पर चलने के द्वारा नहीं, परन्तु दुर्व्यवस्था और गड़बड़ी के द्वारा करते हैं। सूर्यास्त के सुन्दर दृश्य को देखकर या छुट्टी के दौरान आराम करके कोई भी शान्ति महसूस कर सकता है। परमेश्वर पर भरोसा रखने के निर्णय का चुनाव करके हम चिन्तित और भयभीत करने वाली परिस्थितियों में भी सच्ची शान्ति को सीखते हैं। इसी प्रकार, धीरज उन परिस्थितियों में विकसित होता है जिनमें हम प्रतीक्षा करने, क्रोधित होने या भड़कने की परीक्षाओं में पड़ने पर मजबूर होते हैं।
हमारे चुनाव के लिए परमेश्वर प्रत्येक फल के विपरीत परिस्थिति का उपयोग करते हैं। यदि आप किसी बुरी परीक्षा में कभी नहीं पड़े तो आप भले होने का दावा नहीं कर सकते। यदि आपके सामने कभी अविश्वासी होने का अवसर नहीं आया तो आप विश्वास योग्य होने का दावा नहीं कर सकते। बेइमानी की परीक्षाओं से निकल कर ही ईमानदारी आती है। अहंकार का इन्कार करने पर ही विनम्रता बढ़ती है। और जितनी बार आप परीक्षा में पड़कर हार मानने से इंकार करेंगे, धीरज उतना ही बढ़ेगा। जब भी आप अपनी परीक्षा में विजयी होते हैं तब ही आप थोड़ा और मसीह के जैसे बन जाते हैं।
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परीक्षा कैसे काम करती है।
यह हमें ये जानने में मदद करता है कि शैतान हर बातें पहले से जानता है। सृष्टि के प्रारम्भ से लेकर आज तक उसने अपनी उसी पुरानी नीति और चालाकियों का प्रयोग किया है। इसी कारण पौलुस ने कहा, "हम उसकी युक्तियों से अनजान नहीं। " बाइबल से हम सीखते हैं कि परीक्षा एक चार चरण की प्रक्रिया है, जिसे शैतान ने आदम, हव्वा और यीशु दोनों पर प्रयोग किया था।
पहले चरण में, शैतान आपके भीतर की इच्छा को पहचानता है। यह एक पाप पूर्ण इच्छा भी हो सकती है, जैसे बदला लेना या दूसरों पर अधिकार रखने की इच्छा, या फिर यह एक सामान्य इच्छा भी हो सकती है, जैसे सबके प्रिय, महत्वपूर्ण होने या आनन्द प्राप्त करने की इच्छा। परीक्षा उस समय शुरु होती है, जब शैतान आपको (विचारों में) सुझाव देता है कि आप अपनी दुष्ट अभिलाषा को मान लें, या अपनी सही अभिलाषा को गलत तरीके या गलत समय पर पूरा करें। छोटे रास्तों से हमेशा सावधान रहें। वे अक्सर परीक्षा के रास्ते होते हैं। शैतान फुसफुसाकर कहेगा, "तुम इसके योग्य हो। तुम्हें तो यह मिलना ही चाहिए! यह उत्तेजक, ..आरामदायक है... या तुम्हें बेहतर महसूस होगा। "
हम सोचते हैं कि परीक्षाएं और प्रलोभन हमारे चारों ओर होती हैं, परन्तु परमेश्वर कहते हैं कि इसका आरम्भ हमारे अंदर होता है। यदि आपके मन में कोई अभिलाषा नहीं होगी तो, आपको कोई प्रलोभन आकर्षित नहीं कर सकता। प्रलोभन हमेशा आपके मन में शुरु होता है, न कि परिस्थितियों में यीशु ने कहा, “क्योंकि भीतर से, अर्थात् मनुष्य के मन से, बुरे-बुरे विचार, व्यभिचार, चोरी, हत्या, परस्त्रीगमन, लोभ, दुष्टता, छल, लुचपन, कुदृष्टि, निन्दा, अभिमान और मूर्खता निकलती है। ये सब बुरी बातें भीतर ही से निकलती है और मनुष्य को अशुद्ध करती हैं। " याकूब हमें बताते हैं कि, “तुम में लड़ाइयाँ और झगड़े कहाँ से आ गए? क्या उन सुख-विलासों से नहीं जो तुम्हारे अंगों में लड़ते-भिड़ते हैं? 4
दूसरा चरण संदेह है। शैतान हमेशा आपको पाप के बारे में कही गयी परमेश्वर की बातों पर शक करने के लिए गुमराह करता है: क्या यह वास्तव में गलत है? क्या परमेश्वर ने सच में यह करने को मना किया है? क्या परमेश्वर की ये मनाही किसी और के लिए या किसी और समय के लिए तो नहीं है? क्या परमेश्वर मुझे आनन्दित नहीं देखना चाहते? बाइबल चेतावनी देती है कि, “हे भाइयों, चौकस रहो कि तुम में ऐसा बुरा और अविश्वासी मन न हो, जो तुम्हें जीवते परमेश्वर से दूर हटा ले जाए। "5
तीसरा चरण धोखा या छल है। शैतान सच बोलने में असमर्थ है और इसीलिए उसे "झूठ का पिता"" बुलाया गया है। वह आपसे जो भी कहता है वो या तो झूठ होगा या आधा सच होगा। परमेश्वर ने जो कुछ अपने वचन में कहा है उसे बदलने के लिए शैतान झूठ बोलता है। शैतान कहता है, “तुम मरोगे नहीं। तुम परमेश्वर की तरह बुद्धिमान हो जाओगे।
तुम इसके साथ जा सकते हो। किसी को कभी भी मालूम नहीं होगा। इससे तुम्हारी समस्या हल हो जाएगी। यह केवल एक छोटा सा पाप है।" परन्तु एक छोटा सा पाप भी एक छोटा सा गर्भधारण है: एक दिन वह निश्चित प्रकट होगा।
चौथा चरण आज्ञा न मानना है। जो विचार आपके मन में बार-बार चलता रहता है, उसी के अनुसार आप कार्य करने लगते हैं। जिसकी शुरुआत एक विचार के रूप में होती है वो हमारे व्यवहार में जन्म ले लेता है। जो कुछ आपके ध्यान को आकर्षित करता है आप उसको समर्पित हो जाते हैं। आप शैतान के असत्यों पर विश्वास करने लगते हैं और उसके जाल में फँस जाते हैं। जिसके बारे में याकूब चेतावनी देते हैं: "परन्तु प्रत्येक व्यक्ति अपनी ही अभिलाषा से खिंचकर और फँसकर परीक्षा में पड़ता फिर अभिलाषा गर्भवती होकर पाप को जनती है और पाप जब बढ़ जाता है तो मृत्यु को उत्पन्न करता है। हे मेरे प्रिय भाइयों, धोखा न खाओ। "7
एक प्रकार से आप परीक्षा को शिकायत के रूप में समझ सकते हैं। शैतान को उनकी परीक्षा लेने की आवश्यकता नहीं जो पहले ही से उसकी दुष्ट इच्छा को पूरा कर रहे हैं; वे पहले ही से उसके हैं। परीक्षा इस बात का चिह्न है कि शैतान आपसे घृणा करता है, आपकी कमजोरी या सांसारिकता का नहीं। यह मानव होने का और पतित संसार में रहने का सामान्य हिस्सा भी है। इससे आश्चर्य चकित या निराश होने की आवश्यकता नहीं है। इस बात को अच्छे से समझ लें कि परीक्षा तो अवश्य है, और आप इसे कभी भी पूरी तरह नकार नहीं सकते। बाइबल कहती है, “जब आप परीक्षा में पड़े...," न कि यदि । पौलुस सुझाव देते हैं कि, “तुम किसी ऐसी परीक्षा में नहीं पड़े, जो मनुष्य के सहने से बाहर है। "8
परीक्षा में पड़ना पाप नहीं है! यीशु की भी परीक्षा हुई थी, फिर भी उन्होंने कभी पाप नहीं किया। परीक्षा पाप तभी बनती है, जब हम उससे हार जाते हैं। मार्टिन लूथर ने कहा, “आप पक्षियों को अपने सिर पर उड़ने से नहीं रोक सकते परन्तु उन्हें अपने बालों में घोंसना बनाने से अवश्य रोक सकते हैं।" इसी प्रकार आप शैतान को अपने विचारों में सुझाव देने से नहीं रोक सकते परन्तु आप अपने आपको उन सुझावों के अनुसार काम करने से जरूर रोक सके हैं।
उदाहरण के लिए, अनेक लोग शारीरिक आकर्षण या यौन उत्तेजना, या कामुकता के अन्तर को नहीं जानते है। ये सब एक नहीं है। परमेश्वर ने प्रत्येक को यौन अंगो युक्त बनाया है और ये अच्छा है। आकर्षण और उत्तेजना तो परमेश्वर की ओर से शारीरिक सुन्दरता को दिया हुआ प्राकृतिक एवं स्वभाविक उत्तर है, जबकि कामुकता जानबूझकर पूरी की गई इच्छा पूर्ति हैं। कामुकता में आकर पाप किए बिना भी आप आकर्षित या उत्तेजित हो सकते हैं। अधिकतर लोग, विशेषकर मसीही पुरुष, परमेश्वर द्वारा दिये गए अंगों के उत्तेजित होने पर शर्मिन्दगी महसूस करते हैं। जैसे ही उनकी दृष्टि किसी आकर्षक महिला पर पड़ती है, वह उसे कामुकता समझ बैठते हैं और स्वयं को लज्जित और दोषी समझने लगते हैं। परन्तु आकर्षण तब तक कामुकता नहीं बनती, जब तक कि आप उसमें रहना शुरु नहीं कर देते।
वास्तव में, जितना अधिक आप परमेश्वर के समीप आते जाते हैं। शैतान आपको उतना ही अधिक परीक्षा में फँसाने का प्रयास करेगा। जिस घड़ी आप परमेश्वर की सन्तान बनते हैं, उसी घड़ी शैतान, किसी अपराधी के समान आप पर ठप्पा लगा देता है। अब आप उसके शत्रु है, और वह आपके विनाश की योजना बना रहा है।
कभी-कभी प्रार्थना करते समय, शैतान आपका ध्यान भंग करने और लज्जित करने के लिए विचित्र और दुष्ट विचार आपके मन में डालता है। इससे आप परेशान या लज्जित न हों, बल्कि ये जान लें कि, शैतान आपकी प्रार्थनाओं से डरता है और उन्हें रोकने के लिए वे कुछ भी करने की कोशिश करेगा। यह कह कर अपने आप पर दोष लगाने के बजाय कि, "मैं ऐसा सोच भी कैसे सकता हूँ", उसे शैतान का प्रयास समझकर तुरन्त फिर से परमेश्वर की तरफ ध्यान लगाएँ।
अपने आप से पूछिए, “सबसे ज्यादा मैं कब परीक्षा में पड़ता हूँ? सप्ताह के किस दिन? दिन के किस समय?" पूछिये, सबसे ज्यादा परीक्षा में मैं कहाँ पड़ता हूँ? कार्यालय में? घर में? पड़ोसी के घर में? क्रीड़ा-स्थल में? एयरपोर्ट में या नगर के बाहर या होटल में?"
पूछिए, “किसके साथ मैं सबसे ज्यादा परीक्षा में पड़ता हूँ? मित्र? सहयोगी ? अजनबी जनसमूह ? या जब मैं एकान्त में होता हूँ?" यह भी पूछिए, "जब मैं परीक्षा में पड़ता हूँ तो कैसा महसूस करता हूँ" हो सकता है, जब आप थके हुए या अकेले या परेशान या निराश या किसी दबाव में हो या शायद जब आप दुखित, क्रोधित चिन्तित हो या बड़ी सफलता पाने या आत्मिक उन्नति के बाद भी हो सकता है।
आपको अपनी परीक्षा में पड़ने की इस विशेष परिस्थिति को पहचानना चाहिए और फिर इन परिस्थितियों से बचने का हर सम्भव प्रयास करना चाहिए। बाइबल हमें बार-बार लगातार इन परिस्थितियों को जानने और उनका सामना करने के लिए तैयार रहने को कहती है। " पौलुस ने कहा, “और न शैतान को अवसर दो।" बुद्धिमानीपूर्वक काम करना परीक्षा को कम करता है। नीतिवचन की सलाह का पालन कीजिए, “अपने पाँव रखने के लिए मार्ग को समथर कर, और तेरे सब मार्ग ठीक रहें। न तो दाहिनी ओर मुड़ना, और न बाईं ओर; अपने पाँव को बुराई के मार्ग पर चलने से हटा ले।" "बुराई से हटना सीधे लोगों के लिए राजमार्ग है, जो अपने चाल-चलन की चौकसी करता, वह अपने प्राण की भी रक्षा करता है।
पहले चरण में, शैतान आपके भीतर की इच्छा को पहचानता है। यह एक पाप पूर्ण इच्छा भी हो सकती है, जैसे बदला लेना या दूसरों पर अधिकार रखने की इच्छा, या फिर यह एक सामान्य इच्छा भी हो सकती है, जैसे सबके प्रिय, महत्वपूर्ण होने या आनन्द प्राप्त करने की इच्छा। परीक्षा उस समय शुरु होती है, जब शैतान आपको (विचारों में) सुझाव देता है कि आप अपनी दुष्ट अभिलाषा को मान लें, या अपनी सही अभिलाषा को गलत तरीके या गलत समय पर पूरा करें। छोटे रास्तों से हमेशा सावधान रहें। वे अक्सर परीक्षा के रास्ते होते हैं। शैतान फुसफुसाकर कहेगा, "तुम इसके योग्य हो। तुम्हें तो यह मिलना ही चाहिए! यह उत्तेजक, ..आरामदायक है... या तुम्हें बेहतर महसूस होगा। "
हम सोचते हैं कि परीक्षाएं और प्रलोभन हमारे चारों ओर होती हैं, परन्तु परमेश्वर कहते हैं कि इसका आरम्भ हमारे अंदर होता है। यदि आपके मन में कोई अभिलाषा नहीं होगी तो, आपको कोई प्रलोभन आकर्षित नहीं कर सकता। प्रलोभन हमेशा आपके मन में शुरु होता है, न कि परिस्थितियों में यीशु ने कहा, “क्योंकि भीतर से, अर्थात् मनुष्य के मन से, बुरे-बुरे विचार, व्यभिचार, चोरी, हत्या, परस्त्रीगमन, लोभ, दुष्टता, छल, लुचपन, कुदृष्टि, निन्दा, अभिमान और मूर्खता निकलती है। ये सब बुरी बातें भीतर ही से निकलती है और मनुष्य को अशुद्ध करती हैं। " याकूब हमें बताते हैं कि, “तुम में लड़ाइयाँ और झगड़े कहाँ से आ गए? क्या उन सुख-विलासों से नहीं जो तुम्हारे अंगों में लड़ते-भिड़ते हैं? 4
दूसरा चरण संदेह है। शैतान हमेशा आपको पाप के बारे में कही गयी परमेश्वर की बातों पर शक करने के लिए गुमराह करता है: क्या यह वास्तव में गलत है? क्या परमेश्वर ने सच में यह करने को मना किया है? क्या परमेश्वर की ये मनाही किसी और के लिए या किसी और समय के लिए तो नहीं है? क्या परमेश्वर मुझे आनन्दित नहीं देखना चाहते? बाइबल चेतावनी देती है कि, “हे भाइयों, चौकस रहो कि तुम में ऐसा बुरा और अविश्वासी मन न हो, जो तुम्हें जीवते परमेश्वर से दूर हटा ले जाए। "5
तीसरा चरण धोखा या छल है। शैतान सच बोलने में असमर्थ है और इसीलिए उसे "झूठ का पिता"" बुलाया गया है। वह आपसे जो भी कहता है वो या तो झूठ होगा या आधा सच होगा। परमेश्वर ने जो कुछ अपने वचन में कहा है उसे बदलने के लिए शैतान झूठ बोलता है। शैतान कहता है, “तुम मरोगे नहीं। तुम परमेश्वर की तरह बुद्धिमान हो जाओगे।
तुम इसके साथ जा सकते हो। किसी को कभी भी मालूम नहीं होगा। इससे तुम्हारी समस्या हल हो जाएगी। यह केवल एक छोटा सा पाप है।" परन्तु एक छोटा सा पाप भी एक छोटा सा गर्भधारण है: एक दिन वह निश्चित प्रकट होगा।
चौथा चरण आज्ञा न मानना है। जो विचार आपके मन में बार-बार चलता रहता है, उसी के अनुसार आप कार्य करने लगते हैं। जिसकी शुरुआत एक विचार के रूप में होती है वो हमारे व्यवहार में जन्म ले लेता है। जो कुछ आपके ध्यान को आकर्षित करता है आप उसको समर्पित हो जाते हैं। आप शैतान के असत्यों पर विश्वास करने लगते हैं और उसके जाल में फँस जाते हैं। जिसके बारे में याकूब चेतावनी देते हैं: "परन्तु प्रत्येक व्यक्ति अपनी ही अभिलाषा से खिंचकर और फँसकर परीक्षा में पड़ता फिर अभिलाषा गर्भवती होकर पाप को जनती है और पाप जब बढ़ जाता है तो मृत्यु को उत्पन्न करता है। हे मेरे प्रिय भाइयों, धोखा न खाओ। "7
परीक्षा से बाहर आना या जीतना
प्रलोभन कैसे काम करता है ये जानना अपने में फायदेमन्द है, परन्तु इस पर विजय प्राप्त करने के लिए आपको कुछ विशेष करने की जरूरत होगी।भयभीत न हों
ज्यादातर मसीही परीक्षा के विचार से ही डर जाते और हतोत्साहित हो जाते हैं और ये सोच कर शर्मिन्दगी महसूस करते हैं कि वे अभी तक परीक्षाओं से बाहर नहीं आ सके हैं। परीक्षा में पड़ना उनके लिये एक शर्मिन्दगी की बात है। यह अपने को परिपक्व समझने की गलती है। आप कभी भी परीक्षाओं से बाहर नहीं निकल सकते।एक प्रकार से आप परीक्षा को शिकायत के रूप में समझ सकते हैं। शैतान को उनकी परीक्षा लेने की आवश्यकता नहीं जो पहले ही से उसकी दुष्ट इच्छा को पूरा कर रहे हैं; वे पहले ही से उसके हैं। परीक्षा इस बात का चिह्न है कि शैतान आपसे घृणा करता है, आपकी कमजोरी या सांसारिकता का नहीं। यह मानव होने का और पतित संसार में रहने का सामान्य हिस्सा भी है। इससे आश्चर्य चकित या निराश होने की आवश्यकता नहीं है। इस बात को अच्छे से समझ लें कि परीक्षा तो अवश्य है, और आप इसे कभी भी पूरी तरह नकार नहीं सकते। बाइबल कहती है, “जब आप परीक्षा में पड़े...," न कि यदि । पौलुस सुझाव देते हैं कि, “तुम किसी ऐसी परीक्षा में नहीं पड़े, जो मनुष्य के सहने से बाहर है। "8
परीक्षा में पड़ना पाप नहीं है! यीशु की भी परीक्षा हुई थी, फिर भी उन्होंने कभी पाप नहीं किया। परीक्षा पाप तभी बनती है, जब हम उससे हार जाते हैं। मार्टिन लूथर ने कहा, “आप पक्षियों को अपने सिर पर उड़ने से नहीं रोक सकते परन्तु उन्हें अपने बालों में घोंसना बनाने से अवश्य रोक सकते हैं।" इसी प्रकार आप शैतान को अपने विचारों में सुझाव देने से नहीं रोक सकते परन्तु आप अपने आपको उन सुझावों के अनुसार काम करने से जरूर रोक सके हैं।
उदाहरण के लिए, अनेक लोग शारीरिक आकर्षण या यौन उत्तेजना, या कामुकता के अन्तर को नहीं जानते है। ये सब एक नहीं है। परमेश्वर ने प्रत्येक को यौन अंगो युक्त बनाया है और ये अच्छा है। आकर्षण और उत्तेजना तो परमेश्वर की ओर से शारीरिक सुन्दरता को दिया हुआ प्राकृतिक एवं स्वभाविक उत्तर है, जबकि कामुकता जानबूझकर पूरी की गई इच्छा पूर्ति हैं। कामुकता में आकर पाप किए बिना भी आप आकर्षित या उत्तेजित हो सकते हैं। अधिकतर लोग, विशेषकर मसीही पुरुष, परमेश्वर द्वारा दिये गए अंगों के उत्तेजित होने पर शर्मिन्दगी महसूस करते हैं। जैसे ही उनकी दृष्टि किसी आकर्षक महिला पर पड़ती है, वह उसे कामुकता समझ बैठते हैं और स्वयं को लज्जित और दोषी समझने लगते हैं। परन्तु आकर्षण तब तक कामुकता नहीं बनती, जब तक कि आप उसमें रहना शुरु नहीं कर देते।
वास्तव में, जितना अधिक आप परमेश्वर के समीप आते जाते हैं। शैतान आपको उतना ही अधिक परीक्षा में फँसाने का प्रयास करेगा। जिस घड़ी आप परमेश्वर की सन्तान बनते हैं, उसी घड़ी शैतान, किसी अपराधी के समान आप पर ठप्पा लगा देता है। अब आप उसके शत्रु है, और वह आपके विनाश की योजना बना रहा है।
कभी-कभी प्रार्थना करते समय, शैतान आपका ध्यान भंग करने और लज्जित करने के लिए विचित्र और दुष्ट विचार आपके मन में डालता है। इससे आप परेशान या लज्जित न हों, बल्कि ये जान लें कि, शैतान आपकी प्रार्थनाओं से डरता है और उन्हें रोकने के लिए वे कुछ भी करने की कोशिश करेगा। यह कह कर अपने आप पर दोष लगाने के बजाय कि, "मैं ऐसा सोच भी कैसे सकता हूँ", उसे शैतान का प्रयास समझकर तुरन्त फिर से परमेश्वर की तरफ ध्यान लगाएँ।
अपनी परीक्षाओं को जानिये और उनके लिए तैयार हो जाइये
कुछ परिस्थितियाँ ऐसी भी होती हैं जो आपको किसी परीक्षा में मिलने वाले दर्द से अधिक चोट पहुँचाती हैं। कुछ परिस्थितियाँ आपको तुरन्त हिला देती हैं, जबकि दूसरी आपको ज्यादा परेशान नहीं करती। यही परिस्थितियाँ आपकी कमजोरियों की विशेषता है, जिन्हें आपको पहचानना जरूरी है क्योंकि शैतान उन्हें जानता है। वो अच्छी तरह से जानता है कि क्या बात आपको बुरी लगती है और किस परिस्थिति में आप आपा खोते हैं और इसीलिए बार-बार आपको वो उन्हीं परिस्थितियों में ले जाता है! पतरस चेतावनी देते हैं कि, “सचेत हो और जागते रहो; क्योंकि तुम्हारा विरोधी शैतान गर्जने वाले सिंह के समान इस खोज में रहता है कि किसको फाड़ खाए। "अपने आप से पूछिए, “सबसे ज्यादा मैं कब परीक्षा में पड़ता हूँ? सप्ताह के किस दिन? दिन के किस समय?" पूछिये, सबसे ज्यादा परीक्षा में मैं कहाँ पड़ता हूँ? कार्यालय में? घर में? पड़ोसी के घर में? क्रीड़ा-स्थल में? एयरपोर्ट में या नगर के बाहर या होटल में?"
पूछिए, “किसके साथ मैं सबसे ज्यादा परीक्षा में पड़ता हूँ? मित्र? सहयोगी ? अजनबी जनसमूह ? या जब मैं एकान्त में होता हूँ?" यह भी पूछिए, "जब मैं परीक्षा में पड़ता हूँ तो कैसा महसूस करता हूँ" हो सकता है, जब आप थके हुए या अकेले या परेशान या निराश या किसी दबाव में हो या शायद जब आप दुखित, क्रोधित चिन्तित हो या बड़ी सफलता पाने या आत्मिक उन्नति के बाद भी हो सकता है।
आपको अपनी परीक्षा में पड़ने की इस विशेष परिस्थिति को पहचानना चाहिए और फिर इन परिस्थितियों से बचने का हर सम्भव प्रयास करना चाहिए। बाइबल हमें बार-बार लगातार इन परिस्थितियों को जानने और उनका सामना करने के लिए तैयार रहने को कहती है। " पौलुस ने कहा, “और न शैतान को अवसर दो।" बुद्धिमानीपूर्वक काम करना परीक्षा को कम करता है। नीतिवचन की सलाह का पालन कीजिए, “अपने पाँव रखने के लिए मार्ग को समथर कर, और तेरे सब मार्ग ठीक रहें। न तो दाहिनी ओर मुड़ना, और न बाईं ओर; अपने पाँव को बुराई के मार्ग पर चलने से हटा ले।" "बुराई से हटना सीधे लोगों के लिए राजमार्ग है, जो अपने चाल-चलन की चौकसी करता, वह अपने प्राण की भी रक्षा करता है।
परमेश्वर से सहायता के लिए विनती करें
स्वर्ग में 24 घण्टे की आपातकालीन संचार-व्यवस्था उपलब्ध है। परमेश्वर चाहते हैं कि परीक्षा पर विजय पाने के लिए आप उनसे सहायता माँगें। उन्होंने कहा, “और संकट के दिन मुझे पुकार; मैं तुझे छुड़ाऊँगा, और तू मेरी महिमा करने पाएगा।'
मैं इसे “माइक्रोवेव” प्रार्थना कहता हूँ क्योंकि यह संक्षिप्त और सटीक और तीव्रता से की गई प्रार्थना होती है: मदद! संकट! सन्देश! मई का दिन! संकट के समय आपके पास परमेश्वर के साथ लम्बी बात करने का समय नहीं होता; आप केवल उन्हें पुकारे! दाऊद, दानिएल, पतरस, पौलुस और दूसरे हजारों ने संकट के समय परमेश्वर की सहायता के लिए इसी प्रकार संक्षिप्त प्रार्थना की।
बाइबल इस बात की गारंटी देती है कि यीशु हमारे संघर्ष के प्रति सहानुभूति रखते हैं। इसलिए सहायता के लिए लगाई गई हमारी पुकार अवश्य सुनेंगे। उन्होंने भी हमारे जैसे ही परीक्षाओं का सामना किया था। "... क्योंकि हमारा ऐसा महायाजक नहीं जो हमारी निर्बलताओं में हमारे साथ दुःखी न हो सके; वरन् वह सब बातों में हमारे समान परखा तो गया, तौभी निष्पाप निकला। "
यदि परमेश्वर संकट में हमारी मदद करने का इन्तजार कर रहे हैं तो हम क्यों न उनकी ओर और ज्यादा फिरें ? ईमानदारी की बात तो यह है कि, कभी-कभी तो हम चाहते ही नहीं हैं कि हमारी सहायता की जाए। यह जानते हुए भी कि यह गलत है हम स्वयं संकट में परीक्षा में पड़ते हैं। उस क्षण हम यही सोचते हैं कि परमेश्वर से अधिक हम जानते हैं कि हमारे लिए क्या सही है।
कभी-कभी हम एक ही प्रकार की परीक्षाओं में बार-बार गिरते हैं। इसलिए सहायता माँगने में शर्माते हैं। परन्तु बार-बार उनके पास जाकर मदद माँगने से परमेश्वर न तो कभी चिड़चिड़ाते हैं, न उकताते हैं और न ही धीरज खोते हैं। बाइबल कहती है, “इसलिए आओ, हम अनुग्रह के सिंहासन के निकट हियाव बाँधकर चलें कि हम पर दया हो, और वह अनुग्रह पाएँ जो आवश्यकता के समय हमारी सहायता करे।
परमेश्वर का प्रेम अनन्त है और उनका धीरज सदैव बना रहता है। यदि किसी विशेष परीक्षा या संकट से निकलने के लिए आपको मदद माँगने के लिए एक दिन में दो सौ बार भी परमेश्वर को पुकारना पड़े, तौभी वह आपको दया और अनुग्रह प्रदान करने के लिए उत्सुक रहेंगे, इसलिए साहस के साथ आइए। उनसे सही कार्य करने की सामर्थ्य माँगें और उसे पाने की अपेक्षा करें।
परीक्षाएँ हमें परमेश्वर पर निर्भर रखती हैं। जिस प्रकार जब हवा किसी पेड़ के विरुद्ध चलती है तो उसकी जड़े और मजबूत होती हैं, उसी प्रकार जितनी बार आप किसी परीक्षा या संकट का सामना करते हैं तो आप और अधिक यीशु के समान होते जाते हैं। जब आपको ठोकर लगे या चूक हो-जो होगी-तोभी वो जानलेवा नहीं होगी। हार मानने या हथियार डालने के बजाय परमेश्वर की ओर देखें, उससे मदद की अपेक्षा करें और उस प्रतिफल को याद रखें जो आपका इन्तजार कर रहा है। “धन्य है वह मनुष्य जो परीक्षा में स्थिर रहता है, क्योंकि वह खरा निकलकर जीवन का वह मुकुट पाएगा जिसकी प्रतिज्ञा प्रभु ने अपने प्रेम करने वालों से की है।"
विचार करने का अंशः प्रत्येक परीक्षा भलाई करने का एक अवसर है।
याद करने का पद्यः “धन्य है वह मनुष्य जो परीक्षा में स्थिर रहता है, क्योंकि वह खरा निकलकर जीवन का वह मुकुट पाएगा जिसकी प्रतिज्ञा प्रभु ने अपने प्रेम करने वालों से की है।" याकूब 1:12
सोचने योग्य प्रश्नः एक सामान्य परीक्षा में जीतने के बाद मैं मसीह के समान चरित्र की किस विशेषता का विकास कर सकता हूँ?
परीक्षा के द्वारा आगे बढ़ना
1. गलातियों 5:22-23 (NLT)
2. 2 कुरिन्थियों 2:11 (NLT)
3. मरकुस 7:21-23 (NLT)
4. याकूब 4:1 (LB)
5. इब्रानियों 3:12 (CEV)
6. यूहन्ना 8:44
7. याकूब 1:14-16 (TEV)
8. 1 कुरिन्थियों 10:13 (NLT)
9. इब्रानियों 4:15
10. 1 पतरस 5:8 (Msg)
11. मत्ती 26:41; इफिसियों 6:10-18; 1 थिस्सलुनीकियों 5:6, 8; 1 पतरस 1:13; 4:7; 5:8
12. इफिसियों 4:27 (TEV)
13. नीतिवचन 4:26-27 (TEV)
14. नीतिवचन 16:17 (CEV)
15. भजन संहिता 50:15 (GWT)
16. इब्रानियों 4:15 (NLT)
17. इब्रानियों 4:16 (TEV)
18. याकूब 1:12 (NCV)
मैं इसे “माइक्रोवेव” प्रार्थना कहता हूँ क्योंकि यह संक्षिप्त और सटीक और तीव्रता से की गई प्रार्थना होती है: मदद! संकट! सन्देश! मई का दिन! संकट के समय आपके पास परमेश्वर के साथ लम्बी बात करने का समय नहीं होता; आप केवल उन्हें पुकारे! दाऊद, दानिएल, पतरस, पौलुस और दूसरे हजारों ने संकट के समय परमेश्वर की सहायता के लिए इसी प्रकार संक्षिप्त प्रार्थना की।
बाइबल इस बात की गारंटी देती है कि यीशु हमारे संघर्ष के प्रति सहानुभूति रखते हैं। इसलिए सहायता के लिए लगाई गई हमारी पुकार अवश्य सुनेंगे। उन्होंने भी हमारे जैसे ही परीक्षाओं का सामना किया था। "... क्योंकि हमारा ऐसा महायाजक नहीं जो हमारी निर्बलताओं में हमारे साथ दुःखी न हो सके; वरन् वह सब बातों में हमारे समान परखा तो गया, तौभी निष्पाप निकला। "
यदि परमेश्वर संकट में हमारी मदद करने का इन्तजार कर रहे हैं तो हम क्यों न उनकी ओर और ज्यादा फिरें ? ईमानदारी की बात तो यह है कि, कभी-कभी तो हम चाहते ही नहीं हैं कि हमारी सहायता की जाए। यह जानते हुए भी कि यह गलत है हम स्वयं संकट में परीक्षा में पड़ते हैं। उस क्षण हम यही सोचते हैं कि परमेश्वर से अधिक हम जानते हैं कि हमारे लिए क्या सही है।
कभी-कभी हम एक ही प्रकार की परीक्षाओं में बार-बार गिरते हैं। इसलिए सहायता माँगने में शर्माते हैं। परन्तु बार-बार उनके पास जाकर मदद माँगने से परमेश्वर न तो कभी चिड़चिड़ाते हैं, न उकताते हैं और न ही धीरज खोते हैं। बाइबल कहती है, “इसलिए आओ, हम अनुग्रह के सिंहासन के निकट हियाव बाँधकर चलें कि हम पर दया हो, और वह अनुग्रह पाएँ जो आवश्यकता के समय हमारी सहायता करे।
परमेश्वर का प्रेम अनन्त है और उनका धीरज सदैव बना रहता है। यदि किसी विशेष परीक्षा या संकट से निकलने के लिए आपको मदद माँगने के लिए एक दिन में दो सौ बार भी परमेश्वर को पुकारना पड़े, तौभी वह आपको दया और अनुग्रह प्रदान करने के लिए उत्सुक रहेंगे, इसलिए साहस के साथ आइए। उनसे सही कार्य करने की सामर्थ्य माँगें और उसे पाने की अपेक्षा करें।
परीक्षाएँ हमें परमेश्वर पर निर्भर रखती हैं। जिस प्रकार जब हवा किसी पेड़ के विरुद्ध चलती है तो उसकी जड़े और मजबूत होती हैं, उसी प्रकार जितनी बार आप किसी परीक्षा या संकट का सामना करते हैं तो आप और अधिक यीशु के समान होते जाते हैं। जब आपको ठोकर लगे या चूक हो-जो होगी-तोभी वो जानलेवा नहीं होगी। हार मानने या हथियार डालने के बजाय परमेश्वर की ओर देखें, उससे मदद की अपेक्षा करें और उस प्रतिफल को याद रखें जो आपका इन्तजार कर रहा है। “धन्य है वह मनुष्य जो परीक्षा में स्थिर रहता है, क्योंकि वह खरा निकलकर जीवन का वह मुकुट पाएगा जिसकी प्रतिज्ञा प्रभु ने अपने प्रेम करने वालों से की है।"
विचार करने का अंशः प्रत्येक परीक्षा भलाई करने का एक अवसर है।
याद करने का पद्यः “धन्य है वह मनुष्य जो परीक्षा में स्थिर रहता है, क्योंकि वह खरा निकलकर जीवन का वह मुकुट पाएगा जिसकी प्रतिज्ञा प्रभु ने अपने प्रेम करने वालों से की है।" याकूब 1:12
सोचने योग्य प्रश्नः एक सामान्य परीक्षा में जीतने के बाद मैं मसीह के समान चरित्र की किस विशेषता का विकास कर सकता हूँ?
परीक्षा के द्वारा आगे बढ़ना
1. गलातियों 5:22-23 (NLT)
2. 2 कुरिन्थियों 2:11 (NLT)
3. मरकुस 7:21-23 (NLT)
4. याकूब 4:1 (LB)
5. इब्रानियों 3:12 (CEV)
6. यूहन्ना 8:44
7. याकूब 1:14-16 (TEV)
8. 1 कुरिन्थियों 10:13 (NLT)
9. इब्रानियों 4:15
10. 1 पतरस 5:8 (Msg)
11. मत्ती 26:41; इफिसियों 6:10-18; 1 थिस्सलुनीकियों 5:6, 8; 1 पतरस 1:13; 4:7; 5:8
12. इफिसियों 4:27 (TEV)
13. नीतिवचन 4:26-27 (TEV)
14. नीतिवचन 16:17 (CEV)
15. भजन संहिता 50:15 (GWT)
16. इब्रानियों 4:15 (NLT)
17. इब्रानियों 4:16 (TEV)
18. याकूब 1:12 (NCV)

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