यीशु ख्रीष्ट की मृत्यु; death of jesus christ

प्रस्तावना

पतित मनुष्य द्वारा जिन सिद्धान्तों का घोर विरोध किया जाता है वे हैं, देहधारण और प्रायश्चित|

"ये दोनों सिद्धान्त, असहाय और पापी मानवता के प्रति परमेश्वर के आश्चर्यजनक, अकल्पित और अपरिमित प्रेम को दर्शाते हैं" - डॉ० एडोल्फ सफीर

" प्रतिस्थापन, के बाहर मनुष्य के लिए आशा की एक भी किरण नहीं है" डी० एल० मूडी

इस पृथ्वी पर मृत्यु प्रभु यीशु का सर्वोच्च कार्य थी। हम जीवित रहने के लिए आते हैं और मृत्यु हमारे कार्यों का अन्त कर देती है। यीशु मरने के लिए आया, उसका अभिप्राय और किसी रीति से पूरा नहीं हो सकता था।

पाप में मृत्यु दण्ड निहित है। किसी को इसे सहन करना ही होगा, चाहे वह पापी हो या उसका उपयुक्त प्रतिस्थापित। स्वर्ग के न्यायालय में घूस देने की कोई सम्भावना नहीं है। प्रायश्चित मसीहियत का हृदय है। प्रायश्चित पाप के प्रश्न को निपटा देता है।

बताया जाता है कि सी० एच० स्पर्जन, " प्रचारकों का राजकुमार," एक पद चुन लेता था और उसको कलवरी तक पहुँचने के लिए एक सीधा रास्ता बना देता था। पाप और लहू द्वारा प्रायश्चित बाइबल का केन्द्रिय विषय है।

लहू की लाल रेखा बाइबल के आरम्भ, उत्पत्ति से होती हुई सीधी प्रकाशितवाक्य तक पहुँचती है।

1. यीशु की मृत्यु का सिद्धान्त

1) परमेश्वर द्वारा पहले से बता दिया गया था। यशायाह 53:8, “वह जीवतों के बीच में से उठा लिया गया?"

दानिय्येल 9:26, “और उन बासठ सप्ताहों के बीतने पर अभिषिक्त पुरुष (यीशु ख्रीष्ट) काटा जाएगा।' (काटा जाना, यह मृत्यु की भविष्यद्वाणी है)। जकर्याह 13:7, "तू उस चरवाहे को काट, तब भेड़-बकरियाँ तितर-बितर हो जाएंगी। "

Vishwasi Tv में आपका स्वागत है

Read More: ज्यादा बाइबल अध्ययन के लिए क्लिक करें:


2 ) उसकी मृत्यु परमेश्वर द्वारा निर्धारित थी। 

यशायाह 53:6, “यहोवा (परमेश्वर) ने हम सभों के अधर्म का बोझ उसी पर लाद दिया।"

यशायाह 53:10, "तौभी यहोवा (परमेश्वर) को यही भाया कि उसे कुचले, उसी ने उसको रोगी कर दिया: जब तू उसका प्राण दोष- बलि करे।"

प्रेरितों के काम 2:23, "उसी को, जब वह परमेश्वर की ठहराई हुई मनसा और होनहार के ज्ञान के अनुसार पकड़वाया गया, तो तुमने अधर्मियों के हाथ से उसे क्रूस पर चढ़वाकर मार डाला।

3) उसकी मृत्यु का अर्थ।

1) प्रायश्चित (Atonement ): इसका प्रयोग 77 बार किया गया है, और इसका अर्थ पाप को ढांप देना है। यह पुराने नियम का शब्द है और नए नियम में केवल एक बार प्रयोग किया गया है और यह रोमियों 5:11 में है।

2) प्रायश्चित (Propitiation) : इनमें अनुग्रह के सिंहासन का विचार निहित है, 1 यूहन्ना 2:2, "और वही हमारे पापों का प्रायश्चित है।”

3) प्रतिस्थापन (Substitution): यहाँ ऐसी विचार धारा निहित है जिसमें एक किसी दूसरे का स्थान ले लेता है, निर्दोष, दोषी का दण्ड अपने ऊपर ले लेता है। यूहन्ना 10:11, "अच्छा चरवाहा भेड़ों के लिए अपना प्राण देता है।"

4) छुटकारा (Redemption): पाप की जंजीरों जकड़े हुए पापी को एक निश्चित मूल्य अदा करके परमेश्वर वापिस लाता है।

1 पतरस 1:18,19, “तुम्हारा छुटकारा चाँदी-सोने अर्थात् नाशवान वस्तुओं के द्वारा नहीं हुआ, पर निर्दोष और निष्कलंक मेम्ने अर्थात् मसीह के बहुमूल्य लोहू के द्वारा हुआ।" 

5) मेल-मिलाप (Reconciliation): मनुष्य और परमेश्वर एक दूसरे के शत्रु थे, परन्तु अब मित्र बना दिए गए हैं। रोमियों 5:10, " क्योंकि बैरी होने की दशा में तो उसके पुत्र की मृत्यु द्वारा हमारा मेल परमेश्वर के साथ हुआ।" कलवरी पर यीशु की मृत्यु ने मनुष्य का परमेश्वर से मेल करवा दिया।

6) छुड़ौती (Ransom ): यह बन्दी को छुड़ाने के लिए मूल्य चुकाना है ( उस व्यक्ति के लिए जिसका पाप ने अपहरण किया)। मत्ती 20:28, "मनुष्य का पुत्र इसलिए नहीं आया कि उसकी सेवा टहल की जाए, परन्तु इसलिए आया कि आप सेवा टहल करे और बहुतों की छुड़ौती के लिए अपना प्राण दे।" देखिए यूहन्ना 19:18

4 ) उसकी मृत्यु का ढंग।

उसकी मृत्यु क्रूस पर चढ़ाए जाने के कारण हुई, मत्ती 27:35; मरकुस 15:24; लूका 23:33

उसका खम्भे पर लटकाना ऊँचे पर चढ़ाया जाना - पूर्व निर्देशित था- गिनती 21:8; यूहन्ना 3:14। यह एक घृणित मृत्यु थी। इब्रानियों 12:2, “(उसने) लज्जा की कुछ चिन्ता न करके क्रूस का दुख सहा।"

यह एक श्रापित मृत्यु थी। गलातियों 3:13, "मसीह ने जो हमारे लिए श्रापित बना, हमें मोल लेकर व्यवस्था के श्राप से छुड़ाया, क्योंकि लिखा है जो कोई काठ पर लटकाया जाता है, वह श्रापित है।"

5) उसकी मृत्यु स्वेच्छा से थी।

उसने हमारे लिए स्वेच्छा से मरना स्वीकार किया, उसे इसके लिए बाध्य नहीं किया गया। यूहन्ना 10:18, "कोई उसे ( मेरा प्राण) मुझसे छीनता नहीं वरन में उसे आप ही देता हूँ।"

6 ) उसकी मृत्यु के कारण

प्रभु यीशु को, जो पूर्णतः निष्पाप था, क्यों मरना पड़ा?

हम समझ सकते हैं कि पाप के फलस्वरूप दोषी व्यक्ति को मरना पड़ता है। यीशु ने हमारे पाप अपने ऊपर ले लिए और उसे स्वर्ग में वास करने वाले पवित्र परमेश्वर के न्याय को सन्तुष्ट करने के लिए मरना पड़ा।

पाप मूल्य की मांग करता है जो मृत्यु दण्ड है केवल यीशु ख्रीष्ट ही उसका पूरा भुगतान कर सकता था।

परमेश्वर के सभी गुणों में, उद्धार सम्भव बनाने के लिए पूर्ण सामंजस्य होना आवश्यक था। परमेश्वर का प्रेममय स्वभाव तब तक पापों को क्षमा नहीं कर सकता था, जब तब उसका न्यायप्रिय स्वभाव सन्तुष्ट न हो जाए। कलवरी में परमेश्वर के सभी गुणों को पूर्ण समाधान प्राप्त हो गया।

7 ) उसकी मृत्यु का परिणाम 

समस्त मानव जाति के लिए उद्धार, जो उसको अपने प्रतिस्थापन के रूप में स्वीकार करते हैं। 1 तीमुथियुस 4:10, "जो सब मनुष्यों का, और निज करके विश्वासियों का उद्धारकर्त्ता है।"

2. यीशु ख्रीष्ट की प्रतिस्थापित मृत्यु पर आपत्तियां

1 ) क्या मनुष्य अपने पापों के लिए दुःख नहीं उठा सकता? हाँ, परन्तु इसका समुचित दण्ड अनन्त मृत्यु है, और अनन्तकाल भी इतना पर्याप्त लम्बा नहीं होगा, कि उसका पूरा ऋण चुकाया जा सके।

2) क्या मनुष्य अपने पापों का प्रायश्चित कर सकता है? नहीं, अनन्तकाल का दण्ड भी पर्याप्त नहीं है। इब्रानियों 9:22, 'व्यवस्था के अनुसार प्रायः सब वस्तुएं लहू के द्वारा शुद्ध की जाती है, और बिना लहू बहाए क्षमा नहीं होती।" परमेश्वर की मांग को केवल मृत्यु ही सन्तुष्ट कर सकती है और आत्मा नर्क में मरने में कभी सफल नहीं होती, (किसी ने नर्क की यह परिभाषा की है कि यह अनन्तकाल की मृत्यु है, जिसमें आत्मा कभी मरने योग्य नहीं होती।

3) प्रायश्चित (Atonement) के सिद्धान्त का आविष्कार पौलुस ने किया है। नहीं, इसका प्रचार स्वयं हमारे प्रभु यीशु ने किया जबकि वह पृथ्वी पर था। मत्ती 16:21, "यीशु अपने चेलों को बताने लगा कि मुझे अवश्य है कि यरूशलेम को जाऊँ और पुरनियों और महायाजकों और शास्त्रियों के हाथ से बहुत दुख उठाऊँ और मार डाला जाऊँ और तीसरे दिन जी उठूं।" यूहन्ना 12:24, “जब तक गेहूँ का दाना भूमि में पड़ कर मर नहीं जाता, वह अकेला रहता है, परन्तु जब मर जाता तो बहुत फल लाता है।" यीशु वह दाना था जो मरने पर था।

4) क्या यह सिद्धान्त मनुष्यों को अधिक असहाय नहीं बनाता और उनको पहले से अधिक पाप की ओर अग्रसर नहीं करता? नहीं। क्रूस यह सिखाता है कि परमेश्वर पाप से बहुत अधिक घृणा करता है। देखिए रोमियों 6:1,2 

(5) क्या निर्दोष को उसकी इच्छा के विपरीत हमारे पापों के लिए कष्ट सहन करवाना अनुचित बात नहीं है? यह अनुचित बात होती यदि यीशु को उसकी इच्छा के विरुद्ध हमारे पापों के लिए दुःख उठाने पर बाध्य किया जाता।

यीशु ने स्वेच्छा से हमारे लिए मरना स्वीकार किया, यह कार्य उसने अपनी इच्छा से चुना था। हममें से प्रत्येक आज स्वेच्छा से किसी बन्दी के लिए दुःख उठाने के लिये अपने को प्रस्तुत कर सकता है।

6) क्या कलवरी पर भयावह मृत्यु के बिना परमेश्वर पापी को क्षमा नहीं कर सकता था?

पाप परमेश्वर के विरुद्ध किया जाता है, परमेश्वर इसको मिटा क्यों नहीं सकता? वह ऐसा नहीं कर सकता, क्योकि परमेश्वर की व्यवस्था की सन्तुष्टि आवश्यक है। उत्पत्ति 2:17, “क्योंकि जिस दिन तू उसका फल खाए, उसी दिन अवश्य मर जाएगा।"

यहेजकेल 18:4, "जो प्राणी पाप करे, वही मर जाएगा।" रोमियों 6:23, “क्योंकि पाप की मजदूरी तो मृत्यु है।"

पश्चात्ताप पाप के दण्ड की आवश्यकता को मिटाता नहीं है, पाप किया जा चुका है, और पाप के प्रति परमेश्वर के अपने नियमों के अनुसार व्यवहार किया जाना चाहिए। परमेश्वर का न्याय और आदर दांव पर लगे हुए हैं, और इनको सुरक्षित रखा जाना अत्यावश्यक है। परमेश्वर की पवित्रता पाप के लिए मृत्यु दण्ड की मांग करती है।

7) क्या दोषी के दोष को किसी निर्दोष पर स्थानान्तरित नहीं किया जा सकता?

मानवीय न्यायालय केवल दोषी को ही दण्डित करते हैं, परन्तु यदि वे चाहें तो उसके प्रतिस्थापन को भी दण्डित कर सकते हैं, क्योंकि प्रतिस्थापन स्वेच्छा से दूसरे का दोष अपने ऊपर लेता है।

यशायाह 53:4, “निश्चय उसने हमारे रोगों को सह लिया और हमारे ही दुखों को उठा लिया।"

यशायाह 53:5, "वह हमारे ही अपराधों के कारण घायल किया गया, वह हमारे अधर्म के कामों के हेतु कुचला गया; हमारी ही शान्ति के लिए उस पर ताडना पड़ी कि उसके कोड़े खाने से हम लोग चंगे हो जाएं।"

1 पतरस 2:24, "वह आप ही हमारे पापों को अपनी देह पर लिए हुए क्रूस पर चढ़ गया, जिससे हम पापों के लिए मर करके धार्मिकता के लिए जीवन बिताएं, उसी के मार खाने से तुम चंगे हुए।"

8) यदि प्रत्येक पाप का दण्ड अनन्त मृत्यु है, तो यीशु ख्रीष्ट इतनी असंख्य मृत्यु कलवरी पर कुछ ही घण्टों के अन्दर कैसे सहन कर सकता था? इसमें कष्टों की मात्रा द्वारा मूल्यांकन नहीं किया जाता, इसमें महत्वपूर्ण तथ्य परमेश्वर के न्याय की संतुष्टि है। इस वास्तविकता ने स्थिति को बदल दिया कि एक पवित्र, निष्पाप ने यह दु:ख सहन किया। वह जिसने यह कष्ट सहन किया, मात्र एक मनुष्य नहीं था।. वह परमेश्वर था और पूर्ण मनुष्य भी था; 1 तीमुथियुस 2:5

यशायाह 52:14, “उसका रूप यहाँ तक बिगड़ा हुआ था कि मनुष्य का सा न जान पड़ता था।" यह पद एक ऐसी भयावह मृत्यु का चित्र प्रस्तुत करता है कि परमेश्वर ने कलवरी पर अंधकार का परदा डाल दिया. ऐसा न हो कि मनुष्य उस बिगड़े हुए रूप को देख सकें. लूका 23:44 

सारांश

यीशु ख्रीष्ट की मृत्यु प्रत्येक पापी के लिए पर्याप्त है। वह समस्त संसार के पापों के लिए मरा। वह आपके पापों के लिए मरा, विशेष रूप से मेरे पापों के लिए मरा।

पुनर्विचार के लिए प्रश्न

1. पृथ्वी पर अपने लक्ष्य को पूरा करने के लिए यीशु को क्या करना आवश्यक था?

2. प्रश्न 1 के उत्तर को सही प्रमाणित करने के लिए पुराने नियम की दो भविष्यद्वाणियों उद्धृत कीजिए।

3. बाइबल के दो पद बताइए जो यह स्पष्ट कर दे कि पृथ्वी पर यीशु की मृत्यु के लिए परमेश्वर सहमत था।

4. यीशु ख्रीष्ट की मृत्यु के पाँच अर्थ बताइए और उनमें से प्रत्येक को स्पष्ट कीजिए।

5. क्या मनुष्य स्वयं के पापों का प्रायश्चित कर सकता है? क्यों? 

6. यीशु कलवरी के क्रूस पर क्यों मरा?

7. यीशु ख्रीष्ट की मृत्यु का क्या परिणाम निकला ? 

8. क्या यीशु की मृत्यु के बिना परमेश्वर पापों को क्षमा नहीं कर सकता था? क्यों?

9. क्या दोषी के दोष को किसी निर्दोष पर स्थानान्तरित किया जा सकता है? 

10. यदि प्रत्येक पाप का दण्ड मृत्यु है, तो यीशु इतनी असंख्य मृत्यु कैसे सहन कर सकता था?