आराधना
"तब एज्रा ने जो सब लोगों से ऊँचे पर था, सभों के देखते उस पुस्तक को खोल दिया; और जब उसने उसको खोला, तब सब लोग उठ खड़े हुए। तब एज्रा ने महान् परमेश्वर यहोवा को धन्य कहा और सब लोगों ने अपने अपने हाथ उठाकर आमीन, आमीन, कहा; और सिर झुकाकर अपना अपना माथा भूमि पर टेक कर यहोवा को दण्डवत् किया।" नहेम्याह 8:5-6
अंग्रेज़ी का शब्द "आराधना" (WORSHIP) पुराने अंग्रेजी शब्द "योग्यता" (WORTHSHIP) से लिया गया है और इसमें वे कार्य व व्यवहार होते हैं जो स्वर्ग व पृथ्वी के महान् परमेश्वर को आदर व सम्मान देते हैं। इसलिए, आराधना परमेश्वर केन्द्रित होती है, न कि मानव केन्द्रित। मसीही आराधना में हम कृतज्ञता के साथ परमेश्वर के निकट आते हैं कि उसने मसीह के द्वारा हमारे लिए जो किया और साथ ही पवित्रात्मा के द्वारा भी। इसमें विश्वास की वचनबद्धता और यह स्वीकारना होता है कि वह हमारा प्रभु परमेश्वर है।
सच्चे परमेश्वर की आराधना का संक्षिप्त इतिहास। इतिहास के आरम्भ से ही मानव जाति ने परमेश्वर की आराधना की है। अदन की वाटिका में आदम व हव्वा की नियमित संगति परमेश्वर के साथ थी (तुलना करें उत 3:8)। कैन व हाबिल दोनों ही भेंटें लाए (इब्रानी मिनहाह, का अनुवाद "योग्य प्रशंसा" या "भेंट" दोनों ही किया गया है) वनस्पति व पशु जीवन की (उत 4:3-4); शेत के वंशजों ने "प्रभु के नाम को पुकारा" (उत 4:26) । नूह ने परमेश्वर के लिए एक वेदी बनाई अग्नि बलि के लिए, जल प्रलय के पश्चात (उत 8:20)। अब्राहम ने वायदे के देश में जगह-जगह प्रभु के लिए होमवाली के लिए वेदियाँ बनाई (उत 12:7-8; 13:4,18; 22:9) और निकटता का सम्बंध उससे रखा (उत 18:23-33: 22:11-18)।
निर्गमन के बाद, मिलाप का तम्बू बनने तक सार्वजनिक आराधना औपचारिक नहीं हुई थी। उसके बाद दैनिक नियमित भेंटें चढ़ाई जाती थीं और विशेष कर सबत के दिन, और परमेश्वर ने कई वार्षिक पर्व भी नियुक्त किए जो इस्राएलियों के लिए सार्वजनिक आराधना दिवस थे (निर्ग 23:14-17: लैव 1-7 16: 23:4-44; व्य 12:16)। बाद में यरूशलेम के मन्दिर में इस आराधना का केन्द्रीकरण हो गया (तुलना करें दाऊद की योजना जो 1 इत 22-26 में लिखी है)। जब 586 ख्रि. पू. में मन्दिर को बर्बाद कर दिया गया, तो यहूदियों ने आराधानालय बना लिए जहां शिक्षा व आराधना होती थी जब कि वे देश के बाहर थे और विभिन्न स्थानों पर रहने लगे थे। ज़रूब्बाबेल के नेतृत्व में दूसरे मन्दिर का निर्माण होने के बाद भी इन भवनों का प्रयोग आराधना के लिए होता रहा (एजा 3-6)। नए नियम युग में सारे पलिश्तीन व रोम जगत में आराधनालय थे (जैसे लूक 4:16; यूह 6:59; प्रे 6:9; 13:14 14:1; 17:1,10: 18:4; 19:8: 22:19)
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MISTER OF आरम्भिक कलीसिया में आराधना मन्दिर व अपने घरों में चलती रही (प्रे 2:46-47)। यरूशलेम के बाहर, जहाँ तक अनुमति मिलती थी मसीही, आराधनालयों में आराधना करते थे; जब यह अनुमति समाप्त हो गई वे दूसरी जगहों पर आराधना करने लगे, विशेषकर घरों में (तुलना करें प्रे 18:7, रो 16:5, कुल 4:15; फिले 2), यद्यपि कई बार सार्वजनिक भवनों में (प्रे 19:9-10) भी आराधना की।
मसीही आराधना की प्रस्तुती (1) मसीही आराधना को दो मुख्य सिद्धान्त संचालन करता है। (a) सच्ची आराधना आत्मा व सत्य से होती है (देखें यूह 4:23. टिप्पणी), अर्थात्, आराधना पुत्र में अपने प्रकटीकरण के आधार पर होनी चाहिए (तुलना करें यूह 14:6)। इसी प्रकार, इसमें मानवीय आत्मा की आवश्यकता होती है, न केवल मस्तिष्क की, और साथ ही पवित्रात्मा का प्रकटीकरण (1कुर12:7-12)। (b) मसीही आराधना कलीसिया के लिए नए नियम के नमूने के अनुसार होनी चाहिए: (देखें प्रे 7:44, टिप्पणी)। विश्वासियों को आज लालसा करनी चाहिए, खोज करनी चाहिए व कलीसिया के उन सब अवयवों की आराधना में अपेक्षा करनी चाहिए जो नए नियम के आराधना अनुभव में बताये गए हैं (तुलना करें प्रेरितों के परिचय में प्रचार सिद्धान्त पर विचार किया गया है)।
(2) पुराने नियम की आराधना एक बलिदान की व्यवस्था थी (देखें गिन 28-29)। मसीह के बलिदान के पश्चात् क्रूस ने उस बलिदान की व्यवस्था को पूरा कर दिया, और अब मसीही आराधना में लहू बहाने की आवश्यकता नहीं (देखें इन 9:15 10:18)। प्रभु भोज के द्वारा नए नियम की कलीसिया निरन्तर मसीह के एक बलिदान को जो सब युगों के लिए है स्मरण करती है।
(1कुर 11:23-26)। साथ ही कलीसिया को कहा गया है कि "परमेश्वर को स्तुति रूपी बलिदान, अर्थात् उन होठों का फल जो उसके नाम का अंगीकार करते है, परमेश्वर को सर्वदा चढ़ाया करें" (इब 13:15), और अपने शरीरों को "जीवित और पवित्र और परमेश्वर को भावता हुआ बलिदान करके चढ़ाओ" (रो 12:1, टिप्पणी)।
(3) मसीही आराधना में परमेश्वर की प्रशंसा ज़रूरी है। इस्राएली आराधना में परमेश्वर की प्रशंसा एक मुख्य अवयव था (जैसे भेज 1004 106 1 111: 1: 113:1; 117), तथा आरम्भिक मसीही आराधना में भी (प्रे 2:46-47 16:25 से 15:10-11: इन 2:12; देखें लेख स्तुति, पृष्ठ 820)
(4) परमेश्वर की स्तुति का एक मुख्य साधन है भजन, गीत व आत्मिक गीतों को गाना। पुराने नियम में प्रभु के लिए गाने की शिक्षा भरी है (जैसे 1इल 16:23; भज 95 1 96 1-2 981,5-6, 1001-2) यीशु के जन्म पर सम्पूर्ण स्वर्गीय सेना स्तुति के गीत गा रही थी (लूक 2:13-14), तथा नए नियम की कलीसिया गाने वाला समाज था (1कुर 14:15; इफ 5:19: कुल 3:16; याक 5:13)। नए नियम के मसीहियों के गीत या तो मन से गाए जाते थे (अर्थात् ज्ञात मानवीय भाषा में) या आत्मा में (अर्थात् भाषाओं में; देखें 1कुर 14:15, टिप्पणी)। परन्तु यह गान कभी भी मनोरंजन के लिए नहीं थे।
(5) आराधना का एक और मुख्य अवयव है प्रार्थना में परमेश्वर के मुख को देखना। पुराने नियम के भक्त निरन्तर प्रार्थना द्वारा परमेश्वर से सम्पर्क बनाए रखते थे (जैसे उत 20:17: गिन 11:2, 1शम 8:6, 2शम 7:27; दान 9:3-19; तुलना करें; याक 5:17-18)। यीशु के स्वर्गारोहण के बाद शिष्य निरन्तर प्रार्थना में लगे रहे (प्रे 1:14), तथा मसीही सामूहिक आराधना का प्रार्थना एक नियमित भाग बन गई (प्रे 2:42; 20:36, 1थिस 5:17; देखें लेख प्रभावशाली प्रार्थना, पृष्ठ 542)। ये प्रार्थना अपने लिए (जैसे प्रे 4:24-30), या दूसरों के लिए मध्यस्थता की प्रार्थनाएं हो सकती थीं (जैसे रो 15:30-32: इफ 6:18)। सारे समय मसीही प्रार्थना परमेश्वर के धन्यवाद के साथ होनी चाहिए (इफ 5:20; फिलि 4:6: कुल 3:15.17; 1 थिस 5:18)। जैसे गाने में, प्रार्थना भी ज्ञान भाषा या भाषाओं में हो सकती हैं (1कुर 14:13-15)।
(6) पापों का अंगीकार पुराने नियम का आराधना का महत्वपूर्ण भाग था। परमेश्वर ने इस्राएलियों के लिए प्रायश्चित्त दिवस नियुक्त किया था जब कि राष्ट्रीय स्तर पर पापों का अंगीकार करना होता था (लैव 16, देखें लेख प्रायश्चित्त का दिन, पृष्ठ 194)। मन्दिर के समर्पण के समय सुलैमान की प्रार्थना में पाप के अंगीकार को महत्व दिया गया (1रा 8:30-39)। जब एजा व नहेम्याह ने देखा कि लोग व्यवस्था से कितनी दूर चले गए हैं तो उन्होंने सम्पूर्ण यहूदा राज्य का सार्वजनिक प्रार्थना व अंगीकार करने में नेतृत्व किया (नहे 9)। इसी प्रकार प्रभु की प्रार्थना में, यीशु विश्वासियों को सिखाते हैं कि अपने पापों की क्षमा माँगों (मत 6:12) याकूब विश्वासियों से कहता है कि एक दूसरे के सामने अपने पापों को स्वीकारी (याक 5:16); ऐसे अंगीकार के द्वारा हम परमेश्वर की अनुग्रहकारी क्षमा को निश्चित् रूप में पाते हैं (1 यूह 1:9)
(7) आराधना में सार्वजनिक रूप से बाइबल का पठन भी होना चाहिए और उसकी घोषणाय पुराने नियम समय में परमेश्वर ने प्रबंध किया कि प्रत्येक सात वर्ष बाद, झोंपड़ियों के पर्व के समय, सारे इस्त्राएली मूसा की व्यवस्था के सार्वजनिक पठन के लिए जमा हों (व्य 31:9-13) पुराने नियम की इस आराधना का सबसे साफ़ उदाहरण एज्रा व नहेम्याह के समय नज़र आया (देखें नहे 8-1-12 ) 1 पवित्रशास्त्र का पढ़ा जाना आराधनालय में सब्त के दिन आराधना का नियमित हिस्सा बन गया (देखें लुक 4:16 19, प्रे 13:15), इसी प्रकार जब नए नियम के विश्वासी आराधना के लिए जमा होते थे, वे परमेश्वर के वचन को सुनते थे (1तीम 4:13; तुलना करें कुल 4:16; 1थिस 5:27) और साथ ही शिक्षण, प्रचार व सिखाना उसके आधार पर होता था (1तीम 4:13, 2तीम 4:2; तुलना करें प्रे 19:8-10 2017 )।
(8) जब कभी परमेश्वर के पुराने नियम के लोग परमेश्वर के सम्मुख उपस्थित होते थे, उनको दशमांश और भेंटे लाने को कहा जाता था (भेज 96:8; मला 3:10)। इसी प्रकार पौलुस कुरिन्थियों के मसीहियों को लिखता है कि यरूशलेम की कलीसिया के लिए भेंट दें: "सप्ताह के पहले दिन तुम में से प्रत्येक अपनी आमदनी के अनुसार अपने पास कुछ रख छोड़ा करें कि मेरे आने पर चन्दा न करना पड़े" (1कुर 16:2)। इस प्रकार परमेश्वर की सत्य आराधना को अवसर दे कि प्रभु के लिए दशमांश व भेंट दी जा सके।
(9) नए नियम की आराधना मण्डली का एक अद्वितीय अवयव पवित्रात्मा का कार्य व प्रकटीकरण था। मसीह की देह में उसका प्रकटीकरण बुद्धि का संदेश, ज्ञान का संदेश, विश्वास की विशेष प्रस्तुती, चंगाई का वरदान, आश्चर्य कर्म की सामर्थ्य, भविष्यद्वाणी, आत्माओं की परख, भाषाएं बोलना और भाषाओं के अनुवाद (1कुर 12:7-10) के रूप में था। आरम्भिक कलीसिया के कैरिस्मैटिक रूप को पौलुस अपने निर्देश में इस प्रकार बताता है: "जब तुम इकट्ठे होते हो तो प्रत्येक के हृदय में भजन या उपदेश या प्रकाशन या अन्य भाषा का अनुवाद होता है। सब कुछ आत्मिक उन्नति के लिए होना चाहिए" (1कुर 14:26)। इस कुरिन्थियों की पत्री में पौलूस ने वे सिद्धान्त दिए जिनके द्वारा आराधना को चलाया जाए (देखें 1कुर 14:1-33, टिप्पणी), मुख्य बात यह थी कि पवित्रात्मा के किसी भी वरदान का आराधना में प्रयोग समस्त मण्डली को सशक्त बनाने में सहायक हो (1कुर 12:7; 14:26; देखें लेख विश्वासियों के लिए आत्मिक वरदान, पृष्ठ 1800)।
(10) नए नियम की आराधना में एक और अद्वितीय अवयव है धार्मिक संस्कार- बपतिस्मा व पवित्र भोज पूरा करना। प्रभु भोज (या "रोटी तोड़ना " देखें, प्रे 2:42) लगता है पिन्तेकुस्त के बाद एक दैनिक कृत्य था (प्रे 2:46-47), और बाद में कम से कम प्रति सप्ताह (प्रे 20:7,11)। मसीह ने बपतिस्में की आज्ञा दी (मत 28:19-20), तब जब किसी का परिवर्तन हो और वह कलीसिया में जुड़ जाए (प्रे 2:41 8:12; 9:18; 10:48 16:30-33: 19:1-5)।
सच्चे आराधकों के लिए परमेश्वर की आशीषें। जब सच्ची आराधना होती है तो परमेश्वर के पास लोगों के लिए बहुत आशीष होती है। वह प्रतिज्ञा करता है: (1) उन के साथ होगा (मत 18:20) तथा निकट संगति में होगा (प्रक 3:20); (2) अपनी महिमा से अपने लोगों पर छाया करेगा (तुलना करें निर्ग 40:35; 2इत 7:1; 1पत 4:14); (3) अपने लोगों पर आशीषों की वर्षा करेगा (यहेज 34:26), विशेषकर शांति से (भज 29:11, देखें लेख परमेश्वर की शांति, पृष्ठ 1152); (4) अधिकाई से आनन्द प्रदान करता है (भज 122:1: यह 15.11), (5) उनकी प्रार्थनाओं का उत्तर देता है जो विश्वास से प्रार्थना करते हैं (मर 1124 याक 5:15; देखें लेख प्रभावशाली प्रार्थना, पृष्ठ 542); (6) अपने लोगों को पवित्रात्मा से परिपूर्ण करता व साहस प्रदान करता है (प्रें 4:31); (7) अपने लोगों के मध्य पवित्रात्मा का प्रकटीकरण भेजता है (1कुर 12:7-13); (8) पवित्रात्मा के द्वारा अपने लोगों की सत्य में अगुवाई करता है (यूह 15:26, 16:13), (9) अपने वचन व आत्मा द्वारा लोगों को पवित्र करता है (यूह 17:17-19); (10) अपने तसल्ली, प्रोत्साहन व सशक्त करता है (यश 40:1, 1कुर 14:26 2कुर 1:3-4, 1थिस 5:11); (11) अपने लोगों को पवित्रात्मा द्वारा लोगों को पाप, धार्मिकता व न्याय जताता है (देखें यह 16:8, टिप्पणी); और (12) उन पापियों को बचाना जो आराधना सभा में पाप को मानते हैं (1कुर 14:22-25)।
सत्य आराधना में रुकावट। जो अपने आप को परमेश्वर के लोग कहते हैं बस उनका एक स्थान पर एकत्रित हो जाना कोई गारंटी नहीं कि सत्य आराधना हो रही है या कि परमेश्वर उनकी स्तुति व प्रार्थना को ग्रहण कर रहा है।
(1) यदि परमेश्वर की आराधना केवल औपचारिक है और परमेश्वर के लोगों के दिल उससे दूर हैं, तो परमेश्वर उनकी आराधना को ग्रहण नहीं करता। मसीह ने फरीसियों को उनके पाखण्ड के कारण कितने कठोर शब्द कहे वे कानूनी रूप में व्यवस्था का पालन करते थे जब कि उनके हृदय उससे बहुत दूर थे (मत 15:7-9:23:23-28: मर 7:5-7)। ध्यान दें यही दोषारोपण उसने इफिसुस की कलीसिया पर किया जो परमेश्वर की आराधना तो करते थे, परन्तु उससे प्रेम नहीं करते थे (प्रक 2:1-5)। पौलुस विश्वासियों को चेतावनी देता है कि जो प्रभु भोज में शामिल होते हैं पाप को छोड़े बिना और मसीही भाई बहनों की देह की पूर्णता पहचान किए बिना, वे अपने ऊपर दण्ड लाते हैं (1कुर 11:28-30: देखें 11:27, टिप्पणी)। इस प्रकार, हम आशा कर सकते हैं कि परमेश्वर हमारे निकट आएगा और हमारी आराधना को स्वीकारेगा केवल तब यदि हमारे मन उसके साथ सही सम्बंध में हैं (याक 4:8 तुलना करें भज 24:3-4)।
(2) सच्ची आराधना में एक और रुकावट है समझौते की जीवन शैली, पाप व अनैतिकता। परमेश्वर ने राजा शाऊल के बलिदान को अस्वीकार कर दिया क्योंकि उसने अनाज्ञाकारिता की (1शम 15:1-23)। यशायाह परमेश्वर के लोगों से कहता है कि वह एक "पापी जाति, जिस पर अधर्म का बोझ लदा है, और अधर्मियों की संतान" है (यश 1:4); उसी समय जब वे भेटें चढ़ा रहे थे, पवित्र दिनों को मना रहे थे। इसलिए परमेश्वर ने यशायाह के द्वारा कहा "मैं तुम्हारे नए चाँदों और नियत पर्वो के मानने से मैं जी से बैर रखता हूँ; वे सब मुझे बोझ जान पड़ते है, मैं उसको सहते सहते उकता गया हूँ। जब तुम मेरी और हाथ फैलाओ, तब मैं तुम से मुख फेर लूँगा; तुम कितनी भी प्रार्थना क्यों न करो, तौभी मैं तुम्हारी न सुनूँगा; क्योंकि तुम्हारे हाथ खून से भरे है।” (यश 1:14-15)। इसी प्रकार नए नियम की कलीसिया में, यीशु ने सारे आराधकों को जाग जाने को कहा "मैं ने अपने परमेश्वर की दृष्टि में तेरे किसी कार्य को पूर्ण नहीं पाया" (प्रक 3:2)। इसी प्रकार, याकूब बताता है कि परमेश्वर उनकी स्वार्थी प्रार्थनाओं को नहीं सुनता जिन्होंने स्वयं को जगत से अलग नहीं किया (याक 4:1-5; देखें लेख प्रभावशाली प्रार्थना, पृष्ठ 542)। परमेश्वर के लोग आशा कर सुनता सकते हैं कि वह निकट आए और उनकी आराधना को ग्रहण करें केवल यदि उनके हाथ शुद्ध और हृदय पवित्र हों (भज 24:3-4) याक4:8)

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