"क्योंकि मैं जानता हूँ कि तुम्हारे पाप भारी हैं। तुम धर्मी को सताते और घूस लेते, और फाटक में दरिद्रों का न्याय बिगाड़ते हो। इस कारण जो बुद्धिमान हो, वह ऐसे समय चुप रहे, क्योंकि समय बुरा है। हे लोगों, बुराई को नहीं, भलाई को ढूंढो, ताकि तुम जीवित रहो, और तुम्हारा यह कहना सच ठहरे कि सेनाओं का परमेश्वर यहोवा तुम्हारे संग है। आमोस 5:12-14
इस संसार में जहाँ ग़रीब व धनी, जिनके पास है जिनके पास नहीं है दोनों है, सामान्यता से जिनके पास भौतिक सम्पत्ति होती है उनसे जिनके पास कम होता है लाभ उठाते है, तथा दरिद्रों पर कठोरता करके अधिक लाभ उठाते हैं (देखें भज 10:2,9-10, यश 3:14 15 यिर्म 2:34 आम 2:6-7,5-12-13 याक 2:6)। इस बारे में पवित्रशास्त्र काफ़ी कुछ बताती है कि विश्वासी गरीब व दरिद्रों के साथ कैसा व्यवहार करें।
(1) प्रभु परमेश्वर गरीब व दरिद्रों का पक्ष लेता है। वह स्वयं को उनका आश्रय बताता है (भज 14:6, यश 25:4), उनकी सहायता (भज 40:17: 70:5), उनका छुड़ाने वाला (1शम 2:8; भज 12:534:6, 35:10, 113:7, तुलना करें लूक 1.52-53) और उनको देने वाला (भज 10:14. 68:10: 132:15)।
(2) जब परमेश्वर ने इस्राएलियों को अपनी व्यवस्था दी, तो दरिद्रता को मिटाने के उसने कई तरीके बताए (देखें व्य 15 7-11, टिप्पणी)। उनके लिए अपने सम्पूर्ण उद्देश्य को इस प्रकार बताया "तुम्हारे मध्य कोई दरिद्र न हो, क्योंकि वह देश जो तुम्हारा प्रभु परमेश्वर तुम्हें देता है उत्तराधिकार के लिए, वह तुम्हें अधिकाई से आशिष देगा (व्य 15:4)। इस प्रकार अपनी व्यवस्था में परमेश्वर ने गरीबों से ऋण पर ब्याज लेना वर्जित किया (निर्ग 22:25 लैव 25:35-36)। यदि दरिद्र किसी वस्तु को गिरवी रखें (“एक शपथ") ॠण के बदले (जैसे उसका वस्त्र), तो जो ॠण देता है, वह सूर्य ढलने से पहले, उसका वस्त्र वापिस करे। यदि किसी गरीब को अमीर के काम के लिए मजदूर रखा हो, तो उसकी मजदूरी देनी है ताकि वह अपने व अपने परिवार के लिए भोजन खरीद सके (व्य 24:14-15) । फसल के समय, जो दाना भूमि पर गिर जाए उसे दरिद्रों के लिए छोड़ता था ताकि वे उसे अपने लिए बीन सकें (लैव 19:10, व्य 24:19-21): दरअसल, उन्हें अपने खेतों के कोनों से फसल नहीं काटना होती थी ताकि दरिद्र उसे ले सकें (लैव 19:9)। इससे भी प्रभावी परमेश्वर की यह आज्ञा थी कि प्रत्येक सात वर्ष बाद, दीन इस्राएलियों के ऋणों को क्षमा करना था (व्य 15:1-6); न ही वह व्यक्ति जिसके पास साधन थे, ग़रीब को ऋण देने से मना कर सकता था यह कह कर की सातवां वर्ष निकट है (व्य 15:7-11) ऋण की मुआफ़ी के साथ-साथ, परमेश्वर ने वापसी का भी वर्ष ठहराया -जुबली वर्ष (प्रत्येक पचास वर्ष बाद), जिसके लिए आज्ञा थी कि वह सारी भूमि जिस पर पिछले पचास वर्ष में लेन देन होता रहा उसके मूल परिवार स्वामी को लौटा दी जाए (देखें लैव 25:8-55)। तथा सबसे महत्वपूर्ण, न्याय में पक्ष न हो, न तो धनी का और न निर्धन का न्यायालय में पक्ष किया जाए (निर्ग 23:2-3,6; व्य 1:17: तुलना करें नीत 31:9)। इस प्रकार, परमेश्वर ने चाहा कि दरिद्रों की सुरक्षा हो जो उनके द्वारा लाभ उठा सके तथा उनके लिए न्याय निश्चित किया (देखें व्य 24:14, टिप्पणी)
(3) दुर्भाग्यवश, इस्राएली सदा इन नियमों का पालन नहीं करते थे। बल्कि बहुत से धनी निर्धनों से लाभ उठाते थे तथा उनके दुख को बढ़ाते थे। ऐसे कार्यों के लिए परमेश्वर ने भविष्यद्वक्ताओं के द्वारा उन धनी इस्राएलियों के लिए कठोर दण्ड वचन दिए (देखें यश 1:21-25; यिर्म 17:11 आम 4:1-3 5:11-13, मी 2:1-5, हब 2:6-8, जक 7 8-14)
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नए नियम विश्वासियों का दरिद्र व निर्धनों के प्रति उत्तरदायित्व।
नए नियम में भी परमेश्वर ने लोगों को निर्देश दिए कि गरीब व दरिद्रों के लिए चिन्ता प्रकट करें, विशेष कर उनके लिए जो कलीसिया में है।
(1) यीशु की अधिकतर सेवकाई दरिद्रों व यहूदी समाज के ज़रूरतमन्दों में थी, जिनके लिए कोई और चिन्ता करता दिखाई नहीं देता था वे जो सताए व कुचले हुए थे (लूक 4:18-19), सामरी (लूक 17:11-19: यूह 4:1-42), कोढ़ी (मत 8:2-4: लूक 17:11-19), विधवाओं (लूक 7-11-15, 20:45-47), और इन जैसे। वह उनके लिए दण्ड के कठोर शब्द कहता था जो सांसरिक धन सम्पत्ति से जुड़े रहना चाहते थे तथा दरिद्रों को अनदेखी करते थे (मर 10:17-25; लूक 6:24-25 12:16-20; 16:13-15, 19-31, देखें लेख धन सम्पत्ति व दरिद्रता, पृष्ठ 1582)
(2) यीशु मानता था व उसने अपने लोगों से आशा किया कि वे ग़रीबों व दरिद्रों को खुले हृदय से देगें (देखें मत 6:1-4)। यीशु ने स्वयं जो शिक्षा दी उसे करके दिखाया, एक थैली थी जिसमें से वह और उसके शिष्य निर्धनों को देते थे (देखें यूह 12:5-6, 13:29)। एक से अधिक अवसर पर उसने उनको जो उसके अनुयायी बनना चाहते थे निर्देश दिए कि वे दरिद्रों की चिन्ता करें, उनकी सहायता करें, उन्हें धन दें (मत 19:21; लूक 12:33; 14:12-14,16-24 18:22) यीशु इस प्रकार उनकी गहरी चिन्ता करते थे जो आवश्यकता में होते थे, यहाँ तक की प्रभु यीशु मसीह ने कहाँ कि अनन्त स्वर्ग राज्य में प्रवेश करने के लिए यह बहुत ही ज़रूरी है कि क्या हम अपने उन भाईयों और बहनों का ख्याल रखते है जो भूखे प्यासे और नग्न है (मत 25:31-46)1
(3) प्रेरित पौलुस और आरम्भिक कलीसिया ने ज़रूरत के लिए हमेशा तरस एवं प्यार को दिखाया। पौलुस की अति आरम्भिक सेवकाई में, वह व बरनाबास, जो सीरिया के अन्ताकिया के प्रतिनिधि थे, यहूदा के दरिद्र मसीहियों के लिए यरूशलेम में भेटें लाए (पे 11:28-30)। जब यरूशलेम में महासभा हुई, तो अगुवे वहाँ यह घोषणा करना चाहते थे कि उद्धार के लिए ख़तना आवश्यक नहीं, परन्तु यह अवश्य कहा कि पौलुस व उसके साथी “दरिद्रों का ध्यान रखें, वही कार्य जिसे करने का मैं इच्छुक था” (गल 2:10)। अपनी तीसरी मिश्नरी यात्रा में उसका एक उद्देश्य यह भी था कि “यरूशलेम के उन संतों के लिए धन इकट्ठा करें जो ग़रीब हैं। (रो 15:26)। उसने गलतियों व कुरिन्थियों की कलीसियाओं को निर्देश दिए (1कुर 16:1-4)। जब कलीसिया ने पौलुस के निर्देश का उल्लंघन किया, तो उसने उन्हें दरिद्रों व ज़रूरत मन्दों की सहायता करने के विषय लम्बी शिक्षा दी (2कुर 8-9)। उसने मकिदुनिया की कलीसिया की प्रशंसा की जिन्होंने पौलुस से विनती किया कि इस जमा करने में वे भी सहभागी हो (2कुर 8:1-4, 9:2)। पौलुस देने को इतना महत्व देता था कि रोमियों की पुस्तक में वह कहता है कि पवित्र आत्मा का एक वरदान जो वह मसीहियों को देता है वह हृदय खोलकर देने का है ताकि परमेश्वर के कार्य व लोगों की आवश्यकताएँ पूरी हो (देखें रो 12:8, टिप्पणी तुलना करें 1 तीम 6:17-19)
(4) निर्धनों व दरिद्रों की चिन्ता में हमारी पहली प्राथमिकता हो जो मसीह में भाई बहन है। यीशु ने उन वरदानों को जो हमारे साथी विश्वासियों को मिले हैं, की बराबरी उन वरदानों से करता है जो उसे मिली (मत 25:40,45)। आरम्भिक कलीसिया ने एक ऐसे समाज को बनाया जो चिन्ता करने वाला था तथा अपनी सम्पत्ति एक दूसरे की ज़रूरतों में सहायता के लिए बाँटते थे (प्रे 2:44-45, 4:34-37)। जब संख्या में बढ़ी कलीसिया तो प्रेरितों के लिए इस बात को असंभव कर दिया कि वे ज़रूरत वालों को भली प्रकार व समानता से देखभाल करे, इस कारण पवित्र आत्मा से परिपूर्ण सात पुरुषों को इस कार्य के लिए चुना गया (प्रे 6:1-6)। देखभाल करने वाले समाज के सिद्धान्त को पौलुस स्पष्ट करता है, "इसलिए जहाँ तक अवसर मिले सब के साथ भलाई करें, विशेषकर विश्वासी भाईयों के साथ” (गल 6:10) । परमेश्वर चाहता है कि जिनके पास अधिक है वह उनके साथ बाँटें जिनको आवश्यकता है, ताकि परमेश्वर के लोगों में बराबरी हो (2कुर 8:14-15; तुलना करें इफ 4:28; तीत 3:14)1 सारांश में, पवित्रशास्त्र हमें कोई विकल्प नहीं देती सिवाय इसके कि हम अपने चारों ओर के लोगों की भौतिक आवश्यकताओं के प्रति भावुक हों, विशेषकर जो मसीह में हमारे भाई व बहन है।
गरीब व दरिद्रों के लिए परमेश्वर का ध्यान। विभिन्न प्रकार से परमेश्वर ने दीन, दरिद्र व सताए हुओं के लिए बड़ी चिन्ता प्रकट की है।


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