सष्टि
"आदि में परमेश्वर ने आकाश और पृथ्वी की सृष्टि की"। उत 1:1
सृष्टि का परमेश्वर (1) बाइबल में परमेश्वर, प्रकाशित किया है जो समस्त बातों का प्रथम कारण है। कोई भी ऐसा क्षण नहीं था जिसमें परमेश्वर का अस्तित्व न हो। जैसा कि मूसा लिखता है "इससे पहले कि पहाड़ उत्पन्न हुए या तू ने पृथ्वी और जगत की सृष्टि की वरन् अनादिकाल से अनन्तकाल तक तू ही ईश्वर है" (भज 90:2)। इसका सीधा अर्थ यह है कि सीमित विश्व के निर्माण के पूर्व परमेश्वर अनन्त व असीम में अस्तित्वान थे। परमेश्वर स्वर्ग व पृथ्वी में सुदूर सबसे ऊपर, स्वतंत्र तथा पहले पाए जाते थे (देखें 1 तीम 6:16; टिप्पणी देखें कुल 1:16)। (2) परमेश्वर को एक व्यक्तिगत प्राणी के रूप में प्रकाशित किया गया है जिसने आदम व हव्वा को " अपनी ही समानता में बनाया (उत 1:27; देखें 1:26 टिप्पणी)। चूंकि आदम और हव्वा परमेश्वर के स्वरूप में सृजे गए, वे परमेश्वर को प्रत्युत्तर दे सके और उससे संगति रख सके और वह भी प्रेम के साथ व व्यक्तिगत रीति से। (3) परमेश्वर को एक नैतिक प्राणी के रूप में भी प्रकाशित किया गया है जिसने सब कुछ अच्छा बनाया इसलिये निष्पाप था। जब परमेश्वर ने सृष्टि समाप्त की और देखा कि क्या कुछ उसने बनाया है तो पाया कि सब कुछ "बहुत अच्छा” है (उत 1:31) । चूंकि आदम व हव्वा परमेश्वर के स्वरूप व समानता में सृजे गए थे, वे भी बिना पाप के थे (देखें उत 1:26, टिप्पणी)। पाप उस समय मनुष्य के अस्तित्व में प्रवेश कर गया जब साँप अर्थात् शैतान ने हव्वा को परीक्षा में गिरा दिया (उत 3; देखें रो 5:12; प्रका 12:9)
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Read More: ज्यादा बाइबल अध्ययन के लिए क्लिक करें:सृजन की प्रक्रिया : (1) परमेश्वर ने "स्वर्ग व पृथ्वी" समस्त वस्तुओं को सृजा है (उत 1:1; तुलना करें यश 40:28; 42:5; 45:18; मर 13:19; इफ 3:9; कुल 1:16; इब्र 1:2; प्रक 10:6) । "सृजा" शब्द (इब्रानी में बारा) परमेश्वर के द्वारा सृजन कार्य के लिये ही प्रयुक्त हुआ है। इसका अर्थ यह है कि किसी विशिष्ट समय में परमेश्वर ने पदार्थ द्रव्य को जिनका पहले अस्तित्व नहीं था, उन्हें अस्तित्व में आने के लिये आवाज़ दी (देखें उत 1:3, टिप्पणी)। (2) बाइबल, परमेश्वर की सृष्टि पूर्व स्थिति को बेडौल सुनसान तथा अंधकारपूर्ण वर्णन करती है (उत 1:2)। उस समय यह विश्व तथा संसार आज की तरह क्रमबद्ध नहीं थे। यह खाली था, कोई जीवित प्राणी नहीं था, तथा समस्त ज्योति से परे था। इस प्रारंभिक अवस्था के पश्चात्त परमेश्वर ने अंधकार को भगाने के लिये ज्योति की सृष्टि की (उत 1:3-5), विश्व को एक रूप दिया (उत 1:6-13) और पृथ्वी को जीवधारियों से भरपूर कर दिया (उत 1:20-28)। (3) जो साधन परमेश्वर ने प्रयोग में लिया वह उसके वचन की सामर्थ्य थी। बार बार यह कहा गया है "परमेश्वर ने कहा..." (उत 1: 3, 6, 9, 11, 14, 20, 24, 26 ) । दूसरे शब्दों में, परमेश्वर ने बोल कर स्वर्ग व पृथ्वी को अस्तित्व में ले आया; परमेश्वर के सृजनात्मक शब्द के पहले उनका कोई पूर्व अस्तित्व नहीं था (तुलना करें भज 33:6, 9, 148:5; यश 48:13; रो 4:17; इब्र 11:3)। (4) सृजनात्मक कार्य में न सिर्फ पिता, वरन् सभी की भूमिका थी। (a) पुत्र स्वयं एक सामर्थ्य भरा वचन है जिसके द्वारा परमेश्वर ने सब कुछ बनाया। यूहन्ना रचित सुसमाचार के प्रारंभिक भाग में, मसीह को परमेश्वर का अनन्त वचन दर्शाया गया है (यूह 1:1)। "उसी के द्वारा सब कुछ उत्पन्न हुआ है, उसमें से कोई भी वस्तु उसके बिना उत्पन्न न हुई” (यूह 1 : 3 ) । उसी रीति से, पौलुस प्रेरित भी इस बात को बल देता है कि मसीह के द्वारा "सारी वस्तुओं की सृष्टि हुई, स्वर्ग की हो अथवा पृथ्वी की, देखी या अनदेखी सारी वस्तुएं उसी के द्वारा और उसी के लिये सृजी गई है" (कुल 1:16 ) । अंत में इब्रानियों की पत्री का लेखक भी बड़े दावे के साथ कहता है कि उसके पुत्र के द्वारा, परमेश्वर ने सारी सृष्टि रची है (इब्र 1:2)। (b) इसी रीति से, पवित्र आत्मा का भी सृष्टि में बड़ा ही कार्यकारी भूमिका थी। वह सृष्टि के ऊपर मण्डराता है, जिससे इसकी रक्षा करे तथा अपने वाले सृजन कार्य के लिये सब कुछ तैयार करे। "आत्मा" के लिये इब्रानी भाषा का शब्द (रुआह) जिसे "आँधी” या “श्वास" भी कहा जाता है। इस रीति से भजनकार पवित्र आत्मा की भूमिका को बतलाता है + और कहता है : "आकाश मण्डल यहोवा के वचन से और उसके सारे गण उसकी मुँह की श्वास (रुआह) से बने हैं" (भज 33:6)। साथ ही पवित्र आत्मा, सृष्टि को स्थिर रखने के कार्य में भी लगा हुआ है (अय 33:4; भज 104:30)
सृष्टि का उद्देश्य लक्ष्य : संसार की सृष्टि करने में परमेश्वर के पास विशेष कारण थे। (1) परमेश्वर ने स्वर्ग व पृथ्वी की सृष्टि इसलिये की कि अपनी, महिमा, महामय व सामर्थ्य का प्रकटीकरण कर सके। दाऊद कहता है "आकाश ईश्वर की महिमा वर्णन कर रहा है और आकाश मण्डल उसकी हस्तकला को प्रकट कर रहा है" (भज 19:1; तुलना करें भज 8:1 ) सम्पूर्ण भूमण्डल की सृष्टि जो अति विशाल, सुन्दर और सृष्टि के निश्चित क्रम के अनुसार है उसे देखकर हम परमेश्वर जो सृष्टिकर्ता है उसकी और वैभव से चकित रहते है। (2) परमेश्वर ने स्वर्ग और पृथ्वी की सृष्टि इसलिये की कि इसके द्वारा उसे महिमा व आदर प्राप्त हो सके। इस सृष्टि के समस्त तत्व जैसे सूर्य, चन्द्रमा, जंगल के वृक्ष, बारिश व बर्फ, नदियाँ व नाले पहाड़ व पहाड़ियाँ, , पशु व पक्षी - सभी अपने सृष्टिकर्ता परमेश्वर की बड़ाई करते हैं (भज 98:7-8; 148:1-10; यश 55:12) फिर परमेश्वर, मनुष्य से कितना अधिक अपनी प्रशंसा व महिमा चाहता है। (3) परमेश्वर ने पृथ्वी को बनाया जहाँ से मनुष्य के लिये उसके उद्देश्य व लक्ष्य की पूर्ति हो सके। (a) परमेश्वर ने आदम व हव्वा की सृष्टि इसलिये किया कि वह हमेशा तक उनके साथ प्रेममय व व्यक्तिगत सम्बंध रख सके। परमेश्वर ने मनुष्य को त्रिएक प्राणी (देह, प्राण, आत्मा) के रूप में निर्मित किया, जिसमें मन, भावना व इच्छा थी कि वे उसे स्वतंत्र रीति से विश्वास से प्रभु मानकर उसकी आराधना करें तथा उसकी सेवा और उसके प्रति विश्वासयोग्य रहें और धन्यवादित भी। (b) मनुष्य जाती से परमेश्वर इस निकटतम प्रेम सम्बंध को इतना चाहता था कि जिस समय शैतान ने आदम व हव्वा की परीक्षा की और उन्हें उकसाया कि वे परमेश्वर का विरोध करें व आज्ञा का उलंघन करें, तब परमेश्वर ने यह भी प्रतिज्ञा की कि मनुष्य को पाप के परिणामों से छुड़ाने के लिये वह एक उद्धारकर्ता भेजेगा (देखें उत 3:15, टिप्पणी) इस रीती से, परमेश्वर अपने लिये मानव को चाहता है कि वे लोग उसका आनन्द उठाएं, महिमा करें और धार्मिकता में जिए तथा परमेश्वर के सम्मुख पवित्र बने रहें (यश 60:21; 61:1-3; इफ 1:11-12 1पत 2:9)। (c) परमेश्वर की सृष्टि के उद्देश्य की पूर्णता, प्रकाशितवाक्य की पुस्तक में दर्शाई गई है, जहाँ यूहन्ना ने निम्न शब्दों में इतिहास के अंत को दर्शाया है : "वह उनके साथ डेरा करेगा, और वे उसके लोग होंगे और परमेश्वर आप उनके साथ रहेगा और वह उनका परमेश्वर होगा" (प्रक 21:3 ) ।
सृजन व विकासवाद : वर्तमान संसार के वैज्ञानिक व शिक्षित समाज में जीवन व विश्व के प्रारम्भ के लिये विकासवाद प्रमुख विचार धारा माना जाता है। विकास के विषय में, बाइबल पर विश्वास रखने वाले मसीहियों को निम्न अवलोकनों पर ध्यान देना चाहिए। (1) विकासवाद एक प्राकृतिक प्रयास है जिससे विश्व के प्रारम्भ व बढ़ोत्तरी को समझाने का प्रयास किया गया है। इस विचारधारा के अनुसार कोई भी व्यक्तिगत, स्वर्गिय सृष्टिकर्ता नहीं है जिसने इस संसार को सृजा व रूप दिया; बल्कि सब कुछ जो दिखाई पड़ता है व जीवित है वह सब कुछ क्रमवार रीति से करोड़ों वर्षों में होता रहा है। विकासवाद के मानने वाले कहते हैं कि इस परिकल्पना के लिये उनके पास वैज्ञानिक प्रमाण है। (2) विकासवाद की शिक्षा सच्चे अर्थों में वैज्ञानिक नहीं है। वैज्ञानिक तरीकों से सारे निर्णय, उन प्रयोगों के द्वारा बार बार बिना विवाद के प्रमाणित किए जाने चाहिए तथा उन्हें किसी अन्य प्रयोगशाला में पुनः प्रमाणित किया जा सके। स्पष्ट है कि कोई भी प्रयोग इस सिद्धान्त को सहयोग देने में न तो हुई है और न ही हो सकेगी कि किसी "बड़े विस्फोटक” प्रारम्भ से सृष्टि हुई जो प्रारंभ में तो बड़ी सहज प्राणी की थी जो बढ़ते हुए वह किलदर व बड़े व वृहद् स्वरूप में मनुष्य बन गया व अब बढ़ता जा रहा है। अतः विकासवाद मात्र एक परिकल्पना है जिसका कोई वैज्ञानिक "प्रमाण" नहीं है, इसलिये इसे स्वीकार करने के लिये मानवीय सिद्धान्तों पर विश्वास होना आवश्यक है। इसके विपरीत, परमेश्वर के लोगों का विश्वास, प्रभु पर है तथा उसके प्रेरित प्रकाशन पर, जो हमें बतलाता है कि वही है जिसने समस्त वस्तुओं को शून्य से निर्माण किया है (इब 11:3)। (3) यह तो एक तथ्य है कि बदलाव व उन्नति, जीवित प्राणियों के भीतर चलता रहता है। उदाहरण के लिये, कुछ प्रजातियाँ, विलुप्त होती जा रही हैं, दूसरी ओर, कभी कभी, एक ही प्रजाति के मध्य कुछ नई बात दिखाई देती है। परन्तु अब तक ऐसा प्रमाण नहीं मिला है और न ही भौगोलिक रीति से कभी कभी ऐसा परिवर्तन दिखाई नहीं दिया है जो इस सिद्धान्त को स्वीकार करें कि एक प्रजाति के जीवित प्राणी किसी दूसरे प्रकार के प्राणियों से उत्पन्न हुए, या परिवर्तित हुए हैं। बल्कि प्रमाण तो, बाइबल के सिद्धान्त को मान्यता प्रदान करते हैं कि परमेश्वर ने "प्रत्येक जीव की" सृष्टि की है, (उत 1:21, 24-25)। (4) बाइबल धर्मशास्त्र पर विश्वास रखने वाले मसीहियों को ईश्वरीय विकासवाद को भी अस्वीकार करना चाहिए। इस सिद्धान्त में भी अधिकतर निर्णय प्राकृतिक विकासवाद के ही सदृश्य होते हैं, इसमें सिर्फ इतना ही अंतर है कि परमेश्वर ने विकास की प्रक्रिया को प्रारंभ किया है। इस प्रकार के सिद्धान्त के द्वारा बाइबल का प्रकाशन कि परमेश्वर, सृष्टि व सृजन के सभी भागों में एक क्रियाशील सृजनहार था, को इन्कार कर दिया जाता है। उदाहरण स्वरूप उत्पत्ति 1 में पाए जाने वाले सभी क्रिया का कर्ता परमेश्वर है, सिर्फ उत 1:12 को छोड़कर (जिसमें परमेश्वर की आज्ञा पद 11 को पूरा किया गया है) और बार बार कहा जाने वाला वाक्यांश "तब साँझ हुई फिर भोर हुआ"। परमेश्वर निष्क्रिय या मूक निरीक्षक नहीं है जो विकास को देखता रहे बल्कि वह समस्त वस्तुओं का क्रियाशील सृजनहार है (तुलना करें कुल 1:16)।
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