बाईबिल अध्ययन की तैयारी
हम
एक बुनियाद रख रहे है ताकि बाईबिल अध्ययन के समय कठिन प्रश्नों के उत्तर की
प्राप्ति हो सके। कहाँ? जब हम बाईबिल को समझना चाहते हैं. तो हम भी निरन्तर
प्रश्नों के उत्तर ढूंढ़ने में लगे रहते हैं कि ''सच्चाई के वचन'' को
ठीक-ठीक ढंग से निभाया जा सके
2
तीमुथियुस 2:15
परमेश्वर हमें आमंत्रित करता है कि हम अपने सारे प्रश्न उसके सामने
ले जावे
मती
7:7-8
7 “माँगो, तो तुम्हें दिया जाएगा; ढूँढ़ो, तो तुम पाओगे; खटखटाओ, तो तुम्हारे
लिये खोला जाएगा।
8 "क्योंकि जो कोई माँगता है, उसे मिलता है; और
जो ढूँढ़ता है, वह पाता है; और जो खटखटाता है, उसके लिये खोला जाएगा।"।
प्रत्येक पद पर जो मूल प्रश्न है, वह बहुत सरल है: कौन, क्या, कब, कहां,
क्यों और कैसे ? उत्तरों को समझाने के लिये दो प्राथमिक प्रश्न मन में
बनाएँ रखना है जिनका सम्बन्ध मसीही जीवन से है। इन प्रश्नों से हमें क्या सहायता
मिलेगी कि हमारा व्यक्तिगत सम्बन्ध यीशु मसीह से बढ़ सके
फिलिप्पियों 3:10
ताकि मैं उसको और उसके पुनरुत्थान की सामर्थ्य को, और उसके साथ दुःखों में सहभागी होने के मर्म को जानूँ, और उसकी मृत्यु की समानता को प्राप्त करुँ। ) और कि हम कैसे जीवन व्यतीत करेगे
यूहन्ना 7:17
"यदि कोई उसकी इच्छा
पर चलना चाहे, तो वह इस उपदेश के विषय में जान जाएगा कि वह परमेश्वर की ओर से है,
या मैं अपनी ओर से कहता हूँ।"।
अ. प्रत्येक पद के लिये छः मूल प्रश्न
1. कौन ?
जब हम प्रश्न करते हैं कौन? तो हम यह निश्चय करना चाहते हैं कि कौन बोल रहा है और
किस के साथ सम्बोधन है (श्रोतागण कौन है? एक उदाहरण उत्पत्ति 2:22 में मिलता है जब
परमेश्वर अब्राहम से उसके इकलौते पुत्र की बलि के बारे में बोलता है। इस घटना में
परमेश्वर सीट अब्राहम से बात की और किसी दूसरे से बात नहीं करता है. इसलिये हम जो
परमेश्वर के वचन के सुनने वाले हैं उस आज्ञा को अपनाने को बाध्य नहीं है।
2. क्या ?
क्या का सम्बन्ध उस सच्चाई से है जो यीशु मसीह के विषय में कही जाती है
प्रकाशितवाक्य 5 में यीशु को मेम्ना कहा गया है, इसका अर्थ यह नहीं है कि वह एक
यीशु चौपाया है परन्तु इसका संकेत पाप के बलिदान से है जो एक सच्चाई है (यूहन्ना
1:29) दूसरे दिन उसने यीशु को अपनी ओर आते देखकर कहा,
“देखो, यह परमेश्वर का मेम्ना है, जो जगत के पाप हरता है। §
3. कब ?
इसका सकेंत समय व काल से है जिसका संकेत विशिष्ट गद्यांश से हो सकता है।
उदाहरणार्थ अब्राहम का विवाह उनकी सौतेली बहिन से हुआ था - ऐसा विवाह वर्जित था और
अनैतिक माना जाता था। पाठक को यह समझना है कि अब्राहम का विवाह मूसा की व्यवस्था
के पहिले ही हो चुका था चूंकि व्यक्तिगत पाप कोई विषय नहीं है जहाँ कोई व्यवस्था
नहीं है (रोमियों 4:15)। हम अब्राहम के बारे में निश्कर्ष निकालते हैं कि उनका
विवाह पाप नहीं था यह उत्तर उस प्रश्न का समाधान है जब 'कब' की जटिलता को पूर्ण रूप
से समझाया गया है।
4. कहाँ ?
विशिष्ट गद्यांश को कहाँ लिखा गया यह वहाँ के भूगोल और सांस्कृति से जुड़ा हुआ
तथ्य है। हम बहुधा बाईबिल में वर्णन पाते हैं यरूशलेम तक बहुत सी सभ्यताओं में तक
का अर्थ है उत्तर की दिशा की यात्रा। यद्यपि बाईबिल का उसका उद्देश्य उत्पत्ति व
उत्थान है- दिशा नहीं जब यीशु गलील से आये और यरूशलेम की ओर जा रहे थे वास्तव में
वह दक्षिण में यात्रा कर रहे थे परन्तु उत्तम्ता की ओर उन्नत कर रहे थे।
5. क्यों ?
"क्यों" बहुधा कठिन प्रश्न है कि उत्तर दिया जा सके और उत्तर हमें
विशिष्ट गद्यांश के अध्ययन से वहीं मिल जाता है। यदि कोई यशायाह 7:14 को पढ़े जहाँ
लिखा है "सुनों, एक कुवांरी गर्भवती होगी और पुत्र जनेगी और उसका नाम
इम्मानुएल रखेगी स्पष्ट रूप से एक प्रश्न उठता है- "कुवारी क्यों- तो हमारा
उत्तर हो सकता है परमेश्वर इसी प्रकार से कार्य करना चाहता था। यह उत्तर ठीक तो
है, परन्तु अपने में पूर्ण नहीं है।
जैसे हम उत्तर की खोज करते हैं तो हमें रोमियों की पत्री 5 में पाते है कि आदम के
पाप का प्रभाव समस्त मानव जाति पर पड़ा है। हम पाते है कि मानव जाति के प्रत्येक
मनुष्य पापमय सुझाव दिया गया। यदि यीशु का पिता एक संसारिक मनुष्य है तो उसका भी
स्वाभाव पापमय होता. है। यहाँ इस सन्दर्भ में 'क्यों" एक गंभीर तथ्य है कि
ख्रीष्ट की योग्यताओं का वर्णन किया जाये जो उन्होंने पाप के छुटकारे के लिये
दिया।
6. कैसे ?
इस प्रश्न का उत्तर भी उतना ही कठिन है। हम पूछ सकते हैं कि 'यीशु पानी पर कैसे
चले? साधारण उत्तर है कि वह पवित्र आत्मा पर निर्भर था। (लूका 4:18) हम यह भी पूछ
सकते हैं कि परमेष्वर इतिहास को अपने आधीन क्यों रखता है जबकि मनुष्य को चयन की
स्वतन्त्रता प्राप्त है। इसका उत्तर भी सरल नहीं है और हम अपने अध्ययन में इसकी भी
खोज करेंगे।
Vishwasi Tv में आपका स्वागत है
Read More: ज्यादा बाइबल अध्ययन के लिए क्लिक करें:ब. दो महत्वपूर्ण व्यक्तिगत प्रश्नः
1. प्रभु यीशु मसीह के साथ हमारा व्यक्तिगत निकटवर्ती
सम्बन्ध बढ़ाने में यह कैसे सहायक हो सकता है? यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है जो हम
पूछ सकते हैं कि परमेश्वर के वचन के माध्यम से जो ज्ञान हमने प्राप्त किया है उसको
हमारे विश्वास के साथ जुड़ना चाहिये इदानियों (116) ताकि हमारा सम्बन्ध प्रभु के
साथ और भी बढ़ता जाये। हमें परमेश्वर के वचन को ठीक-ठीक और विश्वासनीय मानना
चाहिये और इसका प्रतिफल यह होगा कि हमारा सम्बन्ध प्रभु के साथ उसके प्रेम की
पृष्ठभूमि पर है जो मानव ज्ञान से अत्यन्त बढ़कर है। पौलुस ने इफिसियों की पत्री
314-19 में स्पष्ट किया और लिखा
मैं इसी कारण उस पिता के सामने घुटने टेकता हूँ जिससे स्वर्ग और पृथ्वी पर हर
एक घराने का नाम रखा जाता है कि वह अपनी महिमा के धन के अनुसार तुम्हे यह दान दे
कि तुम उसके आत्मा से अपने भीतरी मनुष्यतः में सामथ पाकर बलवन्त होते जाओ और
विश्वास के द्वारा मसीह तुम्हारे हृदय में बसे कि तुम प्रेम में 1 जड़ पकड़कर और
नेव डाल कर सब पवित्र लोगों के साथ भली-भांति समझने की शक्ति पाओ कि उसकी चौड़ाई
और लम्बाई और ऊंचाई और गहराई कितनी है और मसीह के उस प्रेम को जान सको जो ज्ञान से
परे है कि तुम परमेश्वर की सारी भरपूरी तक परिपूर्ण हो जाओ)।
यदि हम परमेश्वर के वचन को केवल बौद्धिक (बुद्धिवाद) कारणो से अध्ययन करते हैं और
परमेश्वर के और दूसरों के प्रति प्रेम में नहीं बढ़ रहे है ( मरकुस 12:29-31) तो
हम घमण्डी बन रहे हैं (1 कुरुन्धियों 8:1) पीलूस महान धर्मविज्ञान ज्ञाता थे
पृथ्वी पर उनके समान कोई नहीं था (2 कुरून्थियों 12.14)। उन्होने अपनी अत्यन्त
इच्छा यह कहा 'मर्म को जान " (फिलिप्पियो 3:10) पीलूस एक फरीसी होने के कारण
अपनी बुद्धि जीवी यात्रा में थे, परन्तु मसीही होने के कारण जीवते परमेश्वर के साथ
अपना सम्बन्ध तेजस्वी रूप से बनाये रखने का प्रयास आरम्भ किया था।
परमेश्वर की प्रतिज्ञा के खोजी बने रहो और विश्वास करो, ताकि अनुग्रह और पहिचान
में बढ़ते जाओ (2 पतरस 3.18)।
2. हम कैसे जीवन व्यतीत करें ?
जिन पदों का हम अध्ययन कर रहे हैं. उनको जब हम समझ लेते है और उनका अर्थ जान
जायेंगे तो हमे भी समझना है इसे कि प्रतिदिन के
जीवन में कैसे लागू करें। इस धारणा का एक सुन्दर उदाहरण इब्रानियों 12:13. मुख्यता
पद 1 और 2 में दिया गया है।
इस कारण जबकि गवाहों का ऐसा बड़ा बादल हम को घेरे हुए है, तो आओ हर एक रोकने
वाली वस्तु और उलझाने वाले पाप को दूर करके, वह दौड़ जिसमें हमें दौड़ना है धीरज
से दौड़े और विश्वास के कर्ता और सिद्ध करने वाले यीशु की ओर ताकते रहे. जिसमें उस
आनन्द के लिये जो उसके आगे घरा था, लज्जा की कुछ चिन्ता न करे क्रूस का दुःख सहा
और परमेश्वर के सिहांसन की दाहिनी ओर जा बैठा।
दौड़ने का यह उदाहरण इब्रानियों की पत्री के दो पदों में है, लेखन ने चुना है। लोग
अध्याय 11 में एक नायक को देख रहे है, कि दौड़ एक दूरी के लिये है और विजेता का
सम्मानित स्थान प्राप्त होता है। प्रतियोगी अपने ऊपर अतिरिक्त बोझ को उतार देता है
जब वह दौड़ को धीमी करता है और कोई भी रुकावट जिसके कारण वहा ठोकर खा सकता है उसकी
आंखे रेखा पर टिकी हुई हैं जहाँ एक यीशु मसीह अपनी दौड़ पूरी कर चुके हैं. और विजय
प्राप्त कर चुके हैं और अब खड़े हुए हैं। यह सम्भावित आनन्द अधिक महत्त्वपूर्ण है
और यह मुकाबले उस थकित अनुभव के जो दौड़ने वाले को सहना पड़ता है।
तब तीसरे पद में लेखक दो पदों को हमारे जीवनों में लागू करत है जैसे वह लिखते है
इसलिये उस पर ध्यान करें, जिसने अपने विरोध में पापियों का इतना विरोध सह लिया
कि तुम निराश होकर साहस न छोड़ दो।
जब हम मसीह के कारण कष्ट, विरोध, पीड़ा, शोक, लज्जा और अपमान का सामना करते हैं तो
हमें अपने महान अगुवार (यीशु मसीह ) के बारे में सोचना है और उन्ही से प्रोत्साहन
प्राप्त करना है। हमें यह साकार कर देता है कि क्यों कि हमारा ऐसा महायाजक नहीं जो
हमारी निर्बलताओं में हमारे साथ दुःखी न हो सके, वरन वह सब बातों में हमारे समान
परखा तो गया, तौमी निष्पाप निकला (इब्रानियों 4:15)।
स. यदि हम सभी प्रश्नों का उत्तर न दे सकें, तो क्या ?
प्रश्न और उत्तर महत्वपूर्ण है। हमें स्मरण रखना है कि हमारा जीवते परमेश्वर के
सम्बन्ध विश्वास पर आधारित है। इफिसियों 2:8-8. कुलुस्सियों 26, 1 पस, जिन उत्तरों
की हम खोज में है, वह हमे जीवन भर प्राप्त नहीं हो सकेगें। यद्यपि परमेश्वर की
प्रतिज्ञा है कि अन्ततः (आखीरकार) हमारे सभी प्रश्नों के उत्तर मिल ही जायेंगे (1
कुरून्थियों 13:12) धर्मशास्त्र में पर्याप्त सूचनाएं मिल ही जाती है, जो जीवन भर
हमारी अगुवाई कर सकती हैं।
1. पढ़िये यिर्मयाह 39:1-2 और छः विशिष्ट प्रश्नों का
उत्तर दें जो प्रत्येक पद में पूछा जायेः
कौन ? =
क्या ? =
कब ? =
कहां ? =
क्यों ? =
कैसे ? =
2. पढ़िये मरकुस 12:29–31 किन चार बातों के लिये हम
परमेश्वर से प्रेम करते हैं ?
3. पढ़िये इब्रानियों 11:6, 1यूहन्ना 2:7-11, कौन सी
दो बातें मसीही जीवन के लिये अनिवार्य है ?

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