परमेश्वर का अस्तित्व

भूमिका

बाइबल के सिद्धान्तों का अध्ययन आरम्भ करते समय हमें सबसे पहले परमेश्वर के विषय में जानना चाहिए। नास्तिकअविश्वासी ( Skeptics ) तथा व्यर्थ के प्रश्न पूछने वाले लोग हमें बराबर चुनौती देते रहते हैं कि हम सिद्ध करें कि परमेश्वर है। स्वाभाविक मनुष्य के लिए किसी ऐसी वस्तु में विश्वास करना कठिन है जिसे वह न तो देख सकता हैन छू सकता है और न अनुभव कर सकता है ( 1कुरि० 2:14 )

एक मसीही के लिए बाइबल के प्रथम पद से समस्या हल हो जाती है, "आदि में परमेश्वर ने आकाश और पृथ्वी की सृष्टि की" ( उत्पत्ति 1:1 )

बाइबल कोई पाठ्य पुस्तक नहीं है जो परमेश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने का प्रयत्न करती है - बाइबल इस सुनिश्चित तथ्य से आरम्भ होती है कि परमेश्वर है। बाइबल के किसी भी लेखक ( कुल मिलाकर लगभग चालीस ) को इस तथ्य को सिद्ध करने का ध्यान नहीं आया।

बाइबल स्पष्ट रूप से बताती है कि केवल एक मूर्ख ही परमेश्वर के अस्तित्व को अस्वीकार करता है। भजन० 14:1 "मूर्ख ने अपने मन में कहा हैकोई परमेश्वर है ही नहीं। "कोई भी व्यक्ति जिसमें लेश - मात्र भी बुद्धि है इस सुस्पष्ट तथ्य को मान लेगा कि एक जीवित परमेश्वर है। पवित्रशास्त्र के अतिरिक्त परमेश्वर के अस्तित्व का सबसे बड़ा प्रमाण है प्रार्थाना में परमेश्वर के साथ हमारी दैनिक संगति।

मैं जानता हूँ कि परमेश्वर है क्योंकि आज ही मैंने उससे बातें की और उसने मेरे हृदय की प्रार्थना को सुना और उसका उत्तर दियायद्यपि वह केवल मन ही मन में फुसफुसायी गई थी।

 1.पवित्रशास्त्र से प्रमाण

भजन० 19:11. "आकाश ईश्वर की महिमा वर्णन कर रहा हैऔर आकाशमण्डल उसकी हस्तकला को प्रगट कर रहा है। "आकाश की सुन्दरता और महिमा ऊँचे स्वर में कहती है, "परमेश्वर है।"  रोमियों 1:20 इससे भी आगे बढ़कर सुझाता है कि सृष्टि परमेश्वर की अनन्त सामर्थ्य के बारे में सिखाती हैक्योंकि उसके अनदेखे गुणअर्थात् उसकी सनातन सामर्थऔर परमेश्वरत्व जगत की सृष्टि के समय से उसके कामों के द्वारा देखने में आते हैंयहाँ तक कि वे निरुत्तर हैं। "जो व्यक्ति पवित्रशास्त्र को स्वीकार करता है वह परमेश्वर के अस्तित्व को भी सहज ही स्वीकार कर लेगा, आइए कुछ अन्य कम प्रभावित करने वाले तौभी दृढ़ तर्कों का अध्ययन करें।


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 2.विवेक से प्रमाण

मनुष्य एक सर्वोच्च हस्ती ( परमात्मा ) में सार्वभौमिक विश्वास के साथ ही जन्मा हैआज तक एक भी कबीला नहीं मिला जो यह विश्वास न रखता हो। वे जानते हैं कि कोई हस्ती है जो सब चीजों की सृष्टि करती और नियन्त्रण करती है। रोमियों 2:15, " वे व्यवस्था की बातें अपने - अपने हृदयों में लिखी हुई दिखाते हैं और उनके विवेक भी गवाही देते हैंऔर उनकी चिन्ताएँ परस्पर दोष लगातीया उन्हें निर्दोष ठहराती है। "परमेश्वर का अस्तित्व मनुष्य के विवेक में लिखा हुआ है।

प्रेरितों 17:23, "क्योंकि मैं फिरते हुए तुम्हारी पूजने की वस्तुओं को देख रहा थातो एक ऐसी वेदी भी पाईजिस पर लिखा थाकिअनजाने ईश्वर के लिए'। "उनके विवेक ने उन्हें बताया कि एक ईश्वर है यद्यपि वे उसे व्यक्तिगत रूप से नहीं जानते थे।

कुछ नास्तिक दावा कर सकते हैं कि उनके विवेक तो उन्हें परमेश्वर के विषय में नहीं बताते। यह संदेहास्पद है कि एक भी विशुद्ध नास्तिक मिल सके क्योंकि अधिक से अधिक वे ऐसे लोग हैं जिन्होंने अपने विवेक को हठीले अविश्वास से चुप कर दिया है।

कुछ लोग इतने अन्धे हो सकते हैं कि वे आकाश में चमकते सूर्य के अस्तित्व को अस्वीकार कर दें परन्तु इससे यह सत्य बदल नहीं जाता कि सूर्य है और वह प्रतिदिन उदय और अस्त होता है।

वे लोग जो देखने से इनकार कर देते हैं उनके समान अन्धा और कौन हो सकता है। ईमानदार मनुष्य तो जान जाएगा कि उसके हृदय की शान्तधीमी आवाज कहती है कि परमेश्वर है और आज भी जीवित है। लोग परमेश्वर के अस्तित्व का इनकार इसलिए नहीं करतेकि वे परमेश्वर को ढूंढ नहीं पातेपरन्तु इसलिए कि वे अपनी जिम्मेवारी से घबराते हैं। यह जिम्मेवारी है मृत्यु के बाद परमेश्वर को अपने जीवन का लेखा देना।

नास्तिकता शैतान के औजारों में से एक औजार है जिसके द्वारा वह मनुष्यों को बिना उद्धार पाए नींद में डाल देता है। यदि परमेश्वर है ही नहीं तो मैं किसी के प्रति जिम्मेवार नहीं और मैं अपनी इच्छानुसार जी और मर सकता हूँ। परन्तु चिन्तन के शान्त क्षणों में प्रत्येक मनुष्य का विवेक फुसफुसाता है, "परमेश्वर का अस्तित्व है" -और केवल मूर्ख ही इसे अस्वीकार करते हैं।

 ऊपर उड़ते हुए विमान को देखना और उसमें बैठे हुए विमान चालक को न देख पाने के कारण यह कहना कि विमानं बिना चालक के उड़ रहा हैउतना ही मूर्खतापूर्ण है जितना कि आकाश की ओर देखकर यह कहना कि कोई परमेश्वर नहीं है क्योंकि हम उसे देख ही नहीं सकते।

हममें से बहुत थोड़े ही ऐसे हैं जिन्होंने शायद अपने मस्तिष्क को अपनी आँखों से देखा होतौभी हम विश्वास करते हैं कि हमारे पास मस्तिष्क है क्योंकि हम अपने शरीर में एक केन्द्रित नियन्त्रण व्यवस्था पाते हैं जो हमारे शरीर को नियन्त्रित करती है। चूंकि हम सृष्टि को देखते हैं इसलिए हम परमेश्वर में विश्वास रखते हैं।


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 3. कार्यकारण या ब्रहमाण्ड - विज्ञान ( Cosmology ) से तर्क

संसार यहाँ विद्यमान है। यह कहीं न कहीं से तो आया ही होगा। किसी व्यक्ति या वस्तु ने किसी न किसी समय इसे बनाया ही होगा।

आपके पास एक किताब है। किसी न किसी ने तो इसे लिखा ही होगा। संसार के आधुनिक से आधुनिकतम प्रेस और नए से नए उपकरण भी स्वयं कोई पुस्तक नहीं छाप सकते जब तक कि कोई लेखक वह पुस्तक न लिख दे। भवन को बनाने वाला कोई है। पेड़ों की सृष्टि करने वाला कोई है। इस विश्व का संचालन करने वाला भी कोई है।

यदि एक घड़ी के सारे पुर्जे एक डिब्बे में रखकर करोड़ों वर्षों तक सावधानी से हिलाए जाएँ तो "संयोगवश" ही घड़ी नहीं बन जाएगी और न ही वह चलती हुई मिलेगी।

 संसार के अस्तित्व की समस्या का एकमात्र तर्कसंगत उत्तर यह है कि एक बुद्धिमान हस्ती का अस्तित्व हैजिसे हम परमेश्वर कहते हैं।

 4. बनावट से तर्क ( उद्देश्य - मूलक ) ( Theleological )

एक घड़ी का न केवल अस्तित्व रहता है परन्तु उसका एक बनाने वाला भी होता है। वह एक विशेष कार्य के लिए बनाई गई थी। एक घड़ी मच्छरों के रहने के लिए नहीं बनाई गई थी। यह एक तीक्ष्ण बुद्धि वाले मस्तिष्क द्वारा सही समय बताने के लिए बनाई गई थी।

संसार और उसमें की छोटी बड़ी चीजों का निरीक्षण करने पर पता चलता है कि प्रत्येक वस्तु एक बुद्धिमान मस्तिष्क द्वारा जीवन में एक विशेष उद्देश्य पूरा करने के लिए बनाई गई है। चिड़ियों के रंग और जानवरों के आत्म - रक्षा के उपाय संयोगवश नहीं है। यह सृष्टिकर्ता के उत्तम मस्तिष्क की योजना का प्रतिफल है।

 5. नैतिकता से तर्क ( मानव शास्त्रीय ( Anthropological )

मनुष्य के पास एक बौद्धिक और मैतिक स्वभाव है जिससे पता चलता है कि सृष्टिकर्ता केवल एक निर्जीव शक्ति नहीं परन्तु एक जीवितबुद्धिमाननैतिक हस्ती है। उत्पत्ति 1:26, "हम मनुष्य को अपने स्वरूप के अनुसार अपनी समानता में बनाएं।"

उत्पत्ति 1:27, "तब परमेश्वर ने मनुष्य को अपने स्वरूप के अनुसार उत्पन्न कियाअपने ही स्वरूप के अनुसार परमेश्वर ने उसको उत्पन्न किया।"

भजन० 94:9, "जिसने कान दियाक्या वह आप नहीं सुनताजिसने आँख रचीक्या वह आप नहीं देखता?"

परमेश्वर ने मनुष्य को कानआँखेंज्ञानबुद्धितथा इच्छा - शक्ति दी है क्योंकि ये चीजें भी स्वयं उसमें विद्यमान हैं। मनुष्य का विवेक उसे सही और गलतअच्छे और बुरे का भेद सिखाता हैक्योंकि सृष्टिकर्ता एक ऐसी नैतिक हस्ती हैजो पवित्र हैऔर धार्मिकता से प्रेम परन्तु दुष्टता से घृणा करता है।

 6. जीवन से तर्क

जीवनजीवन से ही आता है और प्रारम्भिक जीवन केवल उस प्राणी से ही आया है जिसके पास अनन्त जीवन है। अर्थात् वह जीवन जो शारीरिक जीवन की सृष्टि से पहले था। ऐसा जीवन कहाँ पाया जा सकता हैयह जीवन केवल परमेश्वर में पाया जा सकता है जिसके पास अनन्त जीवन है। भजन० 36:9, "क्योंकि जीवन का सोता तेरे ही पास है।"

एक सेब के पेड़ को उसका जीवन उसके पैतृक पेड़ से मिलता हैमेम्ने को उसका जीवन उसकी माता भेड़ से प्राप्त होता है। परन्तु उन्हें यह जीवन कहाँ से प्राप्त हुआइसका उत्तर पाने के लिए हमें मूल सृष्टि पर ध्यान करना होगा। यीशु ने यूहन्ना 11:25 में कहा, "जीवन मैं ही हूँ, " यूहन्ना 14 : 6 में भी , " जीवन मैं ही हूँ " और यूहन्ना 10:28 में, "और मैं उन्हें अनन्त जीवन देता हूँ।"

प्रत्येक जीवन परमेश्वर ही से उत्पन्न होता है । स्वतः प्रवर्तन ( Spontaneous Generation ) का सिद्धान्त झूठा सिद्ध किया जा चुका है और प्रामाणिक विज्ञान द्वारा पूर्णतः अस्वीकृत है । जीवन का एक आरम्भ अवश्य होना चाहिए। इसका एकमात्र तर्कसंगत उत्तर यह है कि यह आरम्भ परमेश्वर से हुआ था।

 7. सामंजस्य ( Congruity ) से तर्क

नास्तिकता की परिकल्पना कोई समस्या नहीं सुलझाती परन्तु केवल उलझे हुए रहस्यों को और बढ़ा देती है। परमेश्वर को संसार के सृष्टिकर्ता के रूप में स्वीकार करना एक ऐसी जादुई कुन्जी के समान है जो पवित्रशास्त्रप्रकाशनज्ञान तथा विज्ञान के सभी तथ्यों के अनुकूल है। यह एक ऐसा अखण्डनीय सिद्धान्त है जिसे असंख्य लोगों ने दृढ़ता से अपनाया हैये लोग इस विश्वास से प्राप्त सांत्वना में जीने और मरने के लिए भी तैयार है।

सारांश

नास्तिकताजो केवल दैत्याकार शंका और अविश्वास है अपने अनुयायियों को केवल अन्धकार और निराशा की ओर ले जा सकती है। उत्पत्ति 1:1, "आदि में परमेश्वर, "को स्वीकार करनाएक सच्चे खोजी को स्वयं परमेश्वर के पूर्ण प्रकाशन के पथ पर ले चलता है। इब्रानियों 11:6, "परमेश्वर के पास आने वाले को विश्वास करना चाहिए कि वह ( अस्तित्व में ) है।"

आइए हम परमेश्वर पर पूर्ण भरोसा रखते हुए बच्चों के समान उस सरल विश्वास से परमेश्वर के पास आयें जो पवित्रशास्त्र और प्रकृति में परमेश्वर के प्रकटीकरण पर आधारित है।